पृष्ठ:हिंदी कोविद रत्नमाला भाग 1.djvu/१४९

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अधिक रुचि देख कर उन्होंने इन को ईसाई धर्म से हटा कर सनातन धर्म का मार्ग बतलाया। ये अक्सर कहा करते थे कि मुझे ईसाई होने से बचाने में पंडित जी ने मेरे ऊपर बड़ी कृपा की थी।

छात्रावास में बाबू रामकृष्ण ट्यूशनों से अपनी जीविका निर्वाह करते थे। पढ़ना छोड़ने के बाद इन्होंने हरिश्चंद्र स्कूल में नौकरी करली पर कुछ दिन पीछे वह भी छोड़ दी और किताबों की एक छोटी सी दूकान कर ली। बाबू हरिश्चंद्र जी की तथा गोपाल मंदिर के अध्यक्ष लाल जी महाराज की इन पर विशेष कृपा थी क्योंकि ये बड़े कुशाग्र-बुद्धि और हिंदी भाषा के स्वभाव से ही एक अच्छे कवि थे। इनकी किताबों की दुकान अच्छी चली। सन् १८८४ में कलकत्ते जाकर इन्होंने एक प्रेस ख़रीदा। इस प्रेस में पहिले इन्होंने ईसाई-मत-खंडन नाम की एक पुस्तक छापी। उसकी खूब बिक्री हुई और जल्दी ही इनका छापाख़ाना चल निकला। इसी साल मार्च मास से इन्होंने "भारतजीवन" नाम का पत्र प्रकाशित कतना आरंभ किया जो अब तक जारी है। इनके इस प्रेस का और पत्र का नाम बाबू हरिश्चंद्र जी ने स्वयं रक्खा था। इस प्रेस से हिंदी की अच्छी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं।

बाबू रामकृष्ण वर्मा को शतरंज खेलने का बड़ा शौक़ था और उसमें ये बड़े प्रवीण भी थे। इन्होंने पंडित अम्बिकादत्त व्यास की सहायता से कचौरी गली में एक 'चेस क्लब' स्थापित किया था। इन्हें ताश के खेलों का भी अच्छा अभ्यास था। सन् १८८१ ई॰ में उन्होंने ताशकौतुक पचीसी नाम की एक पुस्तक लिखी थी और उसे हरिप्रकाश प्रेस में छपवाया था। इसकी बड़ी बिक्री हुई और लोगों ने इसे खूब पसंद किया।

वैसे तो बाबू रामकृष्ण जी ने हिंदी-गद्य में अथवा पद्य में बहुत सी पुस्तकों की रचना की है परन्तु इनका बहुत बड़ा और

 

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