वचन सुधा में प्रकाशित होने लगी। इसी बाल्यावस्था में इन्होंने महाराज काशिराज के यहाँ की धर्मसभा से भी पारितोपिक पाया। जिस समय व्यास जी की अवस्था केवल १२ घर्ष की थी उस समय काशो जी में एक तैलंग देश के अष्टावधानी कवि पाए, उन्होंने अपना बुद्धि-कौशल दिखला कर यहाँ के सब पंडितों को चकित कर दिया परंतु हमारे व्यास जी ने भी तत्काल शतावधान रच कर उक पंडित को भी चकित किया। उन्होंने अत्यंत प्रसन्न हो कर इन्हें 'सुकवि' को पदवी प्रदान की जिसे यहाँ की सब विद्वन्मंडली ने भी स्वीकार कर लिया। १३ या वर्ष प्रारम्भ होते ही इन्होंने संस्कृत का प्राययन प्रारंभ किया। एक तरफ तो ये व्याकरण सांख्य साहित्य वेदांत आदि गहन विषयों का अध्ययन करते और दूसरी पोर गान बाध संबंधी फलामों का अभ्यास करते जाते थे। संपत् १९३३ में इन्होंने काशी गवर्नमेंट संस्कृत कालिज में नाम लिखवाया और एक हो यर्ष के परिधम में वहां से उत्तम परीक्षा पास की। संवत् १९३७ में इन्हों ये पाचार्य परीक्षा पास की और दूसरे वर्ष साहित्य परीक्षा पास करके सरकार से साहित्याचार्य की पदयी प्राप्त को । दुपयश उसो साल इनके पिता ने परलोकयास किया इससे पर में कलह होने लगी जिससे दुनित होकर इन्होंने कलकत्ते की यात्रा को पार यहाँ अपने विद्या-बल से दव नाम पैदा किया । परंतु तीन ही महीने बाद यहां से चले पाप और पियूपप्रपाद प्रका- राव करने लगे जोकिइनके यापजीयन चलता रहा। अभ्यास करते रिने उनको धारण यहाँ तक बढ़ गई थी कि ये २४ मिनिट में सी सोफ रख सकते थे। इसीसे काशो को ब्रह्माऽमृतार्पणी सभा ने में एक पादो के पदक सहित "घटिकाशतक" को उपाधि मानसोपी।
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