( ७२ ) नको शिण-मंडली में बरा हलचल मया। लोगों ने चारों और से डाट यताना गुरुकिया कि यदि म्लेच्छ माग पढ़ोगे तो हम तुम्दै छोरगंगे। तब तो जीविका जाने देख कर इन्हें विवश हो अंगरेजी पढ़ना छोड़ देना पड़ा। उसी समय काशी में हरिदचंद्र मंगजीन प्रकाशित होने लगा था। उस पद करानकी देश-सेवा की पोर प्रवृति हुई। संवत् ३२ में इन्होंने अपने मित्र श्रीगोस्वामी मधुसूदन जी से मिलकर "फयिकुल कौमुदी" नामकी सभा म्यापित को जिसका मूल उद्देश्य हिंदी पीर संस्कृत की पुष्टि करना था। इस सभा के प्रथम ही अधिवेशन के तीन दिन पहिले इनकी स्त्री का देहांत हो गया। परंतु उस शोकप्रस्त अवस्था में भी ये सभा में सम्मिलित हुए। उस समय भी परम वैष्णव लोगों ने सभा को एक अनोस्रो बात समझ कर विरोध किया परंतु इन्होंने किसी से प्रतिवाद न करके अपना कार्य करते जाना ही मुख्य समझा। उसी वर्ष इनका दूसरा वियाह हो गया। इन्होंने अपनी इस दूसरी पत्नी को स्वयं शिक्षा देकर एक सुयोग्य विदुपी स्त्री बनाया। सभा सोसाइटियों के समागम से इन्होंने भिन्न भिन्न धर्मों के अंध पढ़े जिससे इनकी विशेष शान-वृद्धि हुई। परंतु इनको ग्राम धर्म पर कुछ विशेष रुचि हुई और ये "हिंदूवांधव" में ब्राह्म-धर्म के पक्ष में लेख भी लिखने लगे परंतु बाबू हरिश्चंद्र जी के गुप्त रूप से कटाक्ष करने पर इन्होंने ब्राह्मधर्म से अपना संबंध तोड़ दिया। फिर इन्होंने आर्यसमाज के ग्रंथ पढ़े और स्वामी दयानंद जी से साक्षात् प्रश्नोत्तर किए । आप स्वयं लिखते हैं कि स्वामी दयानंद जो के वाक्य मुझे वेद-याक्यवत् मान्य हैं और उनकी प्रत्येक बात मेरे लिये उदाहरण स्वरूप है।
पृष्ठ:हिंदी कोविद रत्नमाला भाग 1.djvu/१३४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।