इस समय इनके पुत्र टाकुर जगमोहनसिंह की अवस्था केवल उम महीने की थी। (जन्म सं० १९१४ श्रावण शुक्ला १४) सन् १८६६ में ठाकुर जगमोहनसिंह बनारस में पढ़ने के लिये भेजे गए। यहाँ इन्होंने अँगरेज़ी, संस्कृत, हिंदी, बंगला, उर्दू भाषाएं सीखों और उनमें अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली। १६ वर्ष की अवस्था में इन्होंने कालि- दास के कई छोटे छोटे काव्यों का हिंदी छंदोवृद्ध अनुवाद किया काशी में इनसे भारतेंदु हरिश्चंद्र जी से बहुत स्नेह हो गया। इनको समय यहां पढ़ने और सत्संग में वीतता था । यहां से पढ़ कर सन् १८८० ई० में ये धमतरी (रायगढ़ म०प्र०) में तहसील- दार नियत हुए और दो हो वर्ष में अपनी योग्यता के कारण ये एक्स्ट्रा असिस्टेंट कमिश्नर हो गए । विद्या का इन्हें पूरा व्यसन था। सरकारी काम करने के अनंतर जोसमय वचता उसे ये लिखने पढ़ने में बिताते। इसी अवस्था में श्यामास्वप्न आदि ग्रंथ लिखे गए । इसी सेवा-वृत्ति में इन्हें प्रमह रोग हो गया । डाकुरों ने जल वायु बदलने का परामर्श दिया । निदान छः महीने तक ये भिष भिन्न स्थानों में घूमते रहे । रोग कुछ कम हुआ पर जड़ से न गया। परिभ्रमण के प्रनंतर घर लौटने पर कूचविहार स्टेट काउंसिल के ये मंत्री नियत हुए। महाराज कूचबिहार काशी में इनके सहपाठी थे। दो वर्ष तक इन्होंने यहां बड़ी योग्यता से कार्य किया पर रोग ने यहां भी पोछा न छोड़ा। अंत में हार कर नौकरी छोड़ अपने देश को लौटना पड़ा। अनेक उद्योग किए गए पर रोग अच्छा न हुमा । सन् १८९९ के मार्च महीने में एक पुत्र पार एक कन्या छोड़ माप परधाम-गामी हुए। इनके बनाए ग्रंथ ये है-इयामास्थान, दयामासरोजनी, प्रेम सम्मतिलता, मेघदूत, ऋतुसंहार, कुमारसम्भय, प्रेमहज़ारा,सत्र: नाटक, प्रलय, सानप्रदीपिका, सांस्य ( कपिल) सूत्रों की टीका,
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