पृष्ठ:हिंदी कोविद रत्नमाला भाग 1.djvu/११३

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(६१) सन् १८८९ ई० में पंडित प्रतापनारायण कालाकांकर गए और हो हिंदी "हिंदोस्थान" के सहकारी सम्पादक नियत हुए परंतु वच्छंद स्वभाव होने के कारण वहाँ वे बहुत दिनों तक न रह के । मिस्टर ब्रैडला के विलायत से हिंदुस्तान में पाने पर इन्हों बैडला-स्वागत-शोर्पक एक कविता रची थी। उसकी बड़ी तारीफ़ है। यहाँ क्या विलायत तक में इनका नाम हो गया । ये हिंदी गया तथा देवनागरी लिपि के बड़े पक्षपाती थे। यदि इसके वरुद्ध कोई ज़रा भी चूं करता तो आप उसके विपक्ष में ब्राह्मण के कालम के कालम लिन मारते थे। आप बावू हरिश्चंद्र जी के बड़े कि थे। इन्होंने कुल १२ पुस्तकों का भाषानुवाद किया और २० स्तकें लिखों । इनकी अनुवाद की या लिखी हुई सब पुस्तकें प्रायः नोरंजक और शिक्षापूर्ण हैं । पंडित प्रतापनारायण का रंग गोरा पार रोर दुबला था। इनकी रहन सहन साधारण थी पर वे स्वभाव के स्वच्छंद असहनशील और अपने मन के मौजी पुरुप थे। चिट्ठियों के उत्तर देने में आलसी थे। शरीर से प्रायः रोगी रहा करते थे। न्हें नाट्य कौशल से विशेष प्रेम था और ये स्वयं उसमें निपुण थे। इनके सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक विचार स्वतंत्र थे और ये कांग्रेस को अच्छा समझते थे। मिती आपाढ़ शुदि ४ संवत् १९५१ को इनकी मृत्यु हुई।