पृष्ठ:हिंदी कोविद रत्नमाला भाग 1.djvu/११२

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(६०) पंडित प्रतापनारायण मिश्र के हृदय में काव्य का बीज उसी समय में जम चुका था जब कि ये छात्रावस्था में थे। उस समय वाबू हरे- चंद्र का कवि-वचन-सुधा खूब जोर पर था । उसके गद्य पर लेख बड़े हो प्रभावोत्पादक और मनोरंजक होते थे। पंडित प्रताप नारायण उसे बड़े प्रेम से पढ़ते थे। उसी समय कानपुर में लावली की बड़ो चर्चा थी । प्रसिद्ध लावनी वाज़ बनारसीदास वहाँ महतो रहते थे। कानपुर में उसी समय पंडित ललिताप्रसाद विवेहरी उपनाम ललित एक अच्छे कवि हो गए हैं। अस्तु, पंडित प्रताप नारायण मिश्र को लावनी सुनने का चस्का लग गया। जहां लावनी दंगल होता वहाँ ये अवश्य जाते और समय समय पर ललिता के पास भी आते जाते । परिणाम यह हुआ कि मुंगी के कीट तरह उक्त कवि महाशय और लावनी बाज़ों की प्राशु कविता! सुनते ये स्वयं एक अच्छे कवि हो गए। इन्होंने ललित कवि से शास्त्र के नियम भी पढ़े और उन्हींको अपना गुरु मान कर क करने लगे। कहा जा चुका है कि हिंदी अखबार पढ़ने का शौक़ इन्हें कपन से ही लग गया था और यही कारण है कि ये केवल समस्या करने याले कवि न होकर एक सच्चे साहित्य-सेवी हुप । अपने एक मियों की सहायता से इन्होंने १५ मार्च १८८३ से 'प्राय नाम का एक मासिकपन प्रकाशित करना प्रारंभ कर दिर मामय के लेय प्रायः हास्यरस मय व्यंगपूर्ण परंतु शिक्षाप्रद ! थे। इनकी हिंदी पूय महाविरदार होती थी। ये अपने लेने कहापर्ने पार चला गुटकलों का प्रयोग अधिक करते थे, इस इन मिसरे गुटीले होतं धे, शारसोपार संरत में भी काय लं पार यद यिता भी इनकी पेगी ही सरल रसीली । प्रभावोत्पादक होती थी जैसी की हिंदी की।