पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/६७६

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पहेली खूब जानता हूँ मृत्यु जीवन की एकता मे खूब पहचानता हूँ सम्भ्रम के छल छन्द, खूब जानता हूँ माया मोहिनी के हाव - भाव, विभ्रमकरण मानता हूँ सर भव बन्य, किन्तु अनजान प्राण अपनो को जाते दल, बरबस हा-हा-कार करते है मृह मन्द मोह में कहूँ या इसे मानव स्वभाव कहूँ 2 मरण विछोह से क्यों होता हिय खण्ड खण्ड ? यह जो मरण-भीति मानव पे हिय में है, वह क्या है भावी नव जीवनोत्क्रमण वास? यह जो विछोह - जन्म वेदना है मानव मे, वह गया है नूतन-जन्म पीडा का ही बिलास? जीवन मरण एक रूप हो गये है, किंतु, फिर भी समागी जग-जीवन मे मोह-फास, आसू है, हियनिया है, प्राणो का तडपना है, हिय मे भरा गहरा-सा एक उच्छ्वास 1 अपना को जाते अवलोका नयनो से जब, अपनो को देखा जम होते यो निजत्व लीन, मृत्यु - यवनिकाक्षेप - अन्तर में देखा जब नट यो पद-परिवत्तन लीला म तरलीन,- देखा जब पख तोलते या प्राण - विहग को, चनु किये उधर जहा है पथ अन्तहीन, उन क्षण अपने ही आप आया हिय भर, भर झर झर उठे आप ही ये दृग दीग । हम विपपायर्या जनम क