पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/६७

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अब, जब उनके रोम-रोम में उदासीनता, घृणा छा गयी, अब, जय उनके मृदु नयनो मे बाटु, विरक्ति-भायना आ गयी, तव तू वो लालायित होकर मना रहा है न्यो यह मन मे कि इस दुखी जीवन से तो कुछ सुस शायद मिल जाय निधन में 1 अब, जब तब प्यासे लोचन ये उन चरणो मे सह जाते हैं, तव, क्या देखा नहीं कि, उनके माथे पर बल पड़ जाते हैं ? तेरा दिल भी आने-जाने वाला एका हिंडोला है, नर, वडी होशियारी है तुझमे, फिर भी तू कुछ भोला है, नर, क्षणिक ज्ञान के क्षणिक जोश मे माँग चुका है विरति दान , अब लो उन्हे असा हो उठा तव अवलोकन, सत्य मान तू, अब क्या फिर भी ललक ललक कर मागेगा उनका सनेह तू अरे क्या रखा हे इममे अब १ बना नेह अपना विदेह तू। ? देव वता दो तुम्ही कि कैसे रो। यह उन्मत्ताकर्षण' सयम अग्नि कुण्ड में वैमे 'स्वाहा' बाह छोई हिय घपण मेरा अग्नि-कुण्ड है योवल पावकहीन राख को ढेरी, और सुनो, स्वाहा रहने की इतनी ताव नही है मेरी, खिचता ही जाता हूँ बरबस, किन्तु, हाय, फिर पछताता हूँ, 'तथा करोमि नियुक्तोऽस्मि यथा'-यही क्थन में सच पाता हूँ। 7 ? पयो यह दिया राग रस इतना ? यो यह चचलपन दे डाला चयो त्रिगुणो को सूनबद्ध कर पहिना दी आपण गाला इतने पर भी तुम कर रेते यदि सन्तोप, न था मुठ भी डर, पर विवेन पला डाल कर नर को बना दिया है वानर, अय देखो यह फैसे-गे नाच नाचता है निशि बामर, इसके पर-विन्यास कॅप रहे विरुद्धाचरण मति से थर-पर। हम विपपायी जनमक ४४