पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/६६५

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झाँक सके प्रार-पार? क्या है यह सम्भव हम झोक सके आर-पार? सम्भव है क्या कि आज मुक्त मुले मृत्यु-द्वार झाऊँ हम आर-पार? वाध रखे माया ने ममता की डोरी से,- दोनो दृग - सजन ये अपनी बरजोरी से, रजित हैं नयन आज करणा को गेरी से, सीमित इनकी उडान, सीमित है सुविस्तार, साके किमि आर-पार? घिरी सघन मेघ - भोर, बहा मनन - सन समीर, बरसा अर-झरा नौर, पावस की उठी पीर, चपला के चपल तीर शून्य वक्ष चीर - चोर- तन - मन करते अधीर, पैठ गये हिय मार, झाकै किमि आरपार ? घरती के पाहन ये, पाहग यन मारग मै- चरते अवगेय मतत अडे-गडे दृग - मग मे, इनमे ही उलप गये जन - गण - लोचन जग में, सम्भव है नहीं आज अग्रिम - दशन - विहार, साँव किमि आर पार 7 १२५ म पिपपाय जनम