पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/६६

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1 . फ्या मूया था तु? जनम म, एक बार यह नेह मिला था, एक बार ही तो जीवन मे पीतम तुसे सदेह मिला था, फिर भी तो तू घरा कार यो योस उठा 'हे देव, नही यह, जरा चोल स्यो थी दाहकता? क्या थी वह घबराहट दु सह पद निक्षेप एका दिशि में, फिर, शिक्षक, और फिर चलने का मन' यह कैसी अटपटो वात? यह कैसा मन्थर आत्म प्रवचन ओ अजान, मनु यशज के तुम अति अथाह हिय सिन्धु सलौने, फैसे तेरी गहराई में पैर सब मानव है बौने, हृदय-उदधि मे घोर विरोधी भाव वोचि, विक्षोभ मचा है, इसके अरठि ने अपना एक अलग संसार नुति, सुकृति, स्वीकृति, अस्वीकृति, , सदराद्गनि, रति, विरति भयकार इस विडम्बना ही में अब तवा उलला रहा सनेह निरन्तर । पिय का नेह मिला, हिय हुलसा, ललचाया, दौडा फिर शिक्षका, फिर कुछ आतुर हुआ, और फिर कुछ अकुलाया, कुछ कुछ हिचका, मधुरस में यह ककरीलापन 1 है कुछ ऐसा भाग मनुज का, घर में भी अभिशाप देखना, शेवा है इस देवानुज का मन प्रसार वणो मे भो है आत्म ग्लानि की सुप्त व्यथा कुछ, नेह प्राप्ति में भी रहती है अस्वीकृति की अक्थ कथा कुछ । ये औचित्यानाचित्यो के बिराने रच डाले है बन्धन ? जान भाव यह कैसा जो यो कहता है कि थमे यि स्पन्दन ? यह सदसद्विवेक या भीषण शाप मिला रे द्विपद पशु तुझे, और विवेक शून्य अगारे मिले, युझाये भी न यो बुझे, आग जलाती है विवेक यह रो-रोकर वजित करता है, और अवश अनुताप-दुख से यह मानव-जीवन भरता है। हम विपपायी जनमक ४३