पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/६२

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नौका-निर्वाण यह रात मौन-यत धारे, ओढे यह चादर बालो, लक्षावधि शिलमिल आग पयो दिसा रही मतवाली? अन्तरतर का अंधियारा यह पैरल पड़ा भूतल में, सब ओर यही है छाया- पन-उपवन में, जल-पल में। वैसे बन गया अंधेरा मेरा बह रूप उजेला से लुट गया मचानक मेरे प्रकाश ना मेला? क्या तुम सुनना चाहोगे, यह तो है एक कहानी, जग सुनके हँस देता है, उलझी-सी बात बिरानी। गिमता रहता हूँ तारे, सूनी कुटिया रोती है, ये तारे है अगारे या थाल-भरे मोती है। हम विषपायी जनम के