पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/६०१

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स्मृति-नभ मे शिलगिला उठी गत आशाओ को तारावलियाँ, श्वेत कृष्ण धूमिल किरणो से हुई झुटपुटी जीबन - गलिया, कुछ मादत्रा, मनहर परिमल - सा आन लगा नासा मे, मानो. महकी हो रजनीगन्धा की बरसो की मुरलायी कलिया। मैं क्या कहूँ कि जन मन क्या यह बन्दर है। या कि मदारी? लिये दुगडुगो नचा रहा है यह निज को हो वारी - बारी, वह अपगे हो आप बना है धन्दर और कलन्दर दोनी, भरी अनेक अचरजो से है उसकी अपनी स्मरण - पिटारी' अपनी क्या, अन्यो की मुधि व्याकुल कर देती है तन-मन, वे राव अपने मौत अनेको, - जिनकी निगल गये हैं गत क्षण बन आये है स्मरण रूए । वे जीवन बना गये है सूना, सस्मरणो मे आ आकर वे और वढाते हैं सूनापन । सोच रहा हूँ कैसा होता यदि सग होते सब साथी गत' सोच रहा हूँ क्यो न हुआ मै चोर चरण, कर्मठ, नित सयत' मुझे बावला कर देती है मेरे स्मरणो को यह उलान । और, थोक मे भर जाता है मेरा मानस विगत स्मरण - रत । "ट्रीय कारागार, बरला ९प १९४४ ११२ हम विषपापी जनम के