पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५४९

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1 हाँ, यह मानव ही दोषी है, यह उसपी ही है लाचारी, बरे, अन्यथा क्यो बन जाता उमका यह लघु जीवन रौरव ? है परवा, डग-मग पग मानव । आवुल दृम् मीलित है, फिर भी वे गल पन्थ निहार रह हैं, आज घटित घटनाओ पर वे अपना सब खुछ वार रहे है, गत का यह अभिषेक हो रहा, दृग उष्णोदक ढार रहे हैं, भावी के विचार सौधे है, जगा आज विगत का वैभर, है स्मृति-वदा, डग-पग-पग मानव आज पाद आयो मानव को अपनो सुन्दर बिटिया रानी, वह हिप की लभु कणिका जिसकी प्यारी है हर-हर नादानी, मानव देख रहा - लेटी है वह विवर्ण, रूपा, कल्याणी । ऐसे क्षण, बोली, वह कैसे सुने शान्ति का गजन भैरव यह स्मृति-वश, उग-मग-पग मानव । मानव दस रहा है अपने प्राणो की पुत्तलो के लोचन, मानव देख रहा है अपनी गलाक्षी का वारि - विमोचन । और, हो रहा है मानम के हिम का स्फुरण और सकोचन, ऐशक्षण, मह से सोने मया कत्तव्य, कम या निप्लके, है स्मति वश, गमग-पग मानन । पर, मानव में ललो विवशता, उसने देखे बन्धन अपने, और रगा यह दास पीसने, उसके लमै होठ भी कॅपने, मानव यो आया के आगे लहराये भावी के सपने । और, किटकिटायर यह दोदायरने तारा, सृजन नित नव-नव ।। धीर चरण, रण-त, यह मानव ।। रोम काशपार,बरक्षा ८ जून १९४३ शनिपपाय अगमक