पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५३२

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मन्द ज्योति प्रिय, धौरी पड़ रही आज मेरे प्रदीप को बातो, शायद लुट जाये यह मेरी मुसाफिरी की पाती। पथ सुनसान, केटीला, टेढा, पथरीला, अज्ञात, मंजिल लम्बी, भ्रमित पथिक, मग मे छायी चिर रात, शिशिल गात, हो रहे अनेको विकट घात-प्रतिघात, किससे कहे मुसाफिर अपने मन को याकुल वात? कुसमय में लप अप करने लग गयो ज्योति अकुलाती, प्रिय, धीमी पड़ रही आज मेरे प्रदीप की वाती। तुम प्रयाशपति, तुम दिन-मणि-पति रातत-सनातन ज्यातिपते । साय-दाद अनल प्रवाहक, है जगपावक अग्निमते । निज प्रचण्ड किरणागुलियो से उकासा दो मेरो याती, फिर से इसे बना दो प्रिय तुम अग्नि-अरुण धुन मदमाती । डिस्ट्रिक्ट जैछ, बरसी २६ जनवरी १९३३ यह है विप्लव का पथ,माई यह है विप्लव का पथ, भाई, इस मारग मे तुम्ह मिलेगी कई नयी कलियां गुरनायी यह हे विष्य का पथ ना इम शिषपायी ननमक