पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३९०

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अपनी पोथी के पन्ने ये उलट रहे है फिर से, अन्तर में इनके ज्वर है बाहर दिखते सुस्थिर - से। मानस के कोरे पट पे छबि चित्रित कर लाते है, फिर देख उसी को निशि - दिन आँखें भर - भर लाते है। समझाये से समझें क्या? ये तो है बडे हठीले है हाथ वढाते लेने प्रसून फेंटी अपनी यि ठकुरानी का दिन रात ध्यान धरते है, है क्षणिक बुद्धि ऐसे खिन जोते छिन मरते हैं। थी गपाश पुटार, पानपुर १०खिठम्बर १९५१ हम विपपायी जनमक