पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३२

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मानौ किमी नील अचल मे शुभ्र कुन्द कलियाँ मुसकायो, चलो वको को आतुर टोली गगन चौरती-सी सम गति से, मानो पाश्वत टोह-भावना उडी छुडाकर बाँह नियति से। ३ में थलचारी पुछ रहा हूँ कहाँ चलं तुम सब, ओ खग-गण? ज्यो गगनोन्मुख प्रिय पाहुन से पूछा करते है सुगृही जन कोन ताल आये हो तजकर, ज्यो निर्मोही तजते है घर? खिंचे जा रहे हो गमो सर सर मानो तुम हो चग गगन-चर। उड़ा रहा है तुम्हे कोन यो? है तब सृति-डोरी किसके कर है तव पिय भी पया वैसे ही जैसे है मेरे पिम हिय-हर ? ? उढते देख गगन मे खगगण, उडने की मायी मेरे मन, सोचा, प्यो न उडाऊँ निज तन जा निरयूँ अपने मनभावन, जा निरयूँ पिय का मधुरानन निरयूँ उनने आगुल लोचन, निज पिय के वे सफरुण मुनयन, जिनमे विग्रयोग के जल-पण, हम विषपायी जाम के