पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२९८

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उधर से क्या कह तुम्हे करूं सम्बोधित लिखते लगती लाग, 'प्या लिखते ही कलम निगोडी कप जाती है आज ! एक यही अक्षर लिख लिख कर कागद करे सराब, यह लेखनी ढीठ है नेकन सहती मेरो दार। यह तो गचल-मचल पड़ती है, कैसे समझे? हाय। पर पड़ा लिखने को, मैं तो आज हुई निरुपाय। ५८५ सब जग मुझे दोप देता है मैं हूँ बड़ी नछोर, साथिन वाहती कि मैं रुलाती हूँ अपना चित - चोर । 'ऐसा भी क्या मूक प्यार जो कभी न ले सुध, आइ I यो चुटकी लेतो हैं सखियां मुझको चलते राह । मैं क्या करू लाज डाइन यह मुझको खाये जाय, इधर तुम्हारा न्यान कोचता मुझे रुलाय - स्लाय ! भर आपो मे नौर, ह्येि मे पीर, भिगोये चौर, कैसे लिखू नेह-पाती, तुम ही बोलो मति - धीर । बार-बार कागद पसीज उठता-मेरा क्या दोप? यह कुण्ठिता लेखनी निष्क्रियता मे पाती तोप' स्याही स्याही-वह तो सूख चुकी काय की विरहेश, जब से तपिश हुई तब से स्याही का रहा न लेश । आओ, माज बलया ले- इस भादो के बीच, रिम-झिम बरसो, महो मचा दो मेरे अंगना कीच । मे दौडी आले स्वागत को, फिमल पडू हरपाय, तुम घबराये - मुराकाये - से बाँह पक्ड लो भाग । उस क्षण मेरी लोक-लाज का गढ़ ही जाये घूण, यो हो पत्र अधूरा मेरा होता जाये पूर्ण, हम वियपा सनम क ३५