पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२१६

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प्रज्ञा प्रमथित, चलित चेतना, बुद्धि चक्ति, मति भ्रमित निरन्तर, मन कम्पनमय उन्मन-उस्मन, दाका क्रान्त सरल बहिरन्तर, ऐसे क्षण कलियुग द्वापर म तिमि कोई बतलाये अन्तर ? दुविधाओ की यह अनोनिका चढ आयी है शय-नाद कर । यह है द्वापर, यह है द्वापर । तुग छेत्ता भव-भय सशय के, पाथ सारथी तुम करुणाकर, धौर चरण धरते, तग हरते, पयो न पधारी आज कृपा बार? देखो तो बहिरग विकल है, सदेहाकुल है अन्तरतर, ऊषा को सुहाग देते तुम आ जाओ, ओ जग के तमहर, यह है द्वापर, यह है हापर, ग्वाल, बाल, गोपी गायो को कोई नही ले गया है हर, गोकुल उजडा, लुप्त हो चुना गुल्म लताओं का भी ममर । थका-थका सा आज लग रहा कालिन्दो का गहर घहर-रचर । आ देखो तो वृन्दावनकी दशा आज तुम, श्री भटनागर, यह है वापर, यह है वापर । आओ, नेका बजामो मुरली, (को पाचजय फिर स्वर भर, फिर जागृति का नाद गुंजा दौ, काँप उठे वेतनता थर-थर, फिर से श्रवणो मे नित जे तत्र मुरली, तर शख मोहहर, सिरजो नये ग्वाल, नव गोपी, नव गोकुल, नव भारत प्रियवर, यह है द्वापर, यह है वापर। मेंद्रीय कारागार, बरेली २४ अगस्त १९४३ हम विषपाथी गगम से १६१