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और ननदों के प्रति दुर्व्यवहारों की शिक्षा, ईश्वर दत्त स्वाभाविक पवित्रता और शील को नष्ट कर देना है, और यह अवश्य पाप है। शरीर शास्त्र के पण्डितगण और वैज्ञानिक विद्वानों का यह मत है कि पुत्र की अपेक्षा कन्या के ही शरीर में मानवीय पूर्ण कलाओं का विकास हुया है। शारीरिक और आत्मिक दोनों ही प्रकार के अवयव पूर्ण रूप से कन्या के अंग में है, इसीलिये कन्यायें अत्यन्त पवित्र, अत्यन्त पूज्य और अत्यन्त स्नेह करने योग्य हैं। व्यवहारिक जीवन में यह हम नित्य देखते हैं कि घरों में कन्याऐ लड़कों की अपेक्षा निकृष्ट भोजन वस्त्र पाती हैं, वे प्रायः घर भर की झूठन पर पलती हैं । वे बराबर के भाइयों के निष्ठुर अत्याचार सहती हैं, फिर भी वे मधुर, सहन शील और त्याग भाव से ओत प्रोत हुई रहती हैं । स्यानी होने पर दिन २ उनका शील और सहन शीलता बढ़ती है। माता-पिता चाहे भी जैसे व्यक्ति के साथ उन्हें व्याह देते हैं-वे पूरा कष्ट पाकर, जीवन नष्ट होने पर भी कभी माता-पिता के प्रति कठोर नहीं बनतीं। जवकि पुत्रगण बहुओं के गुलाम होकर माता पिता को ठोकरें मारते हैं। अव से कुछ वर्ष पूर्व कन्याओं को पढ़ानापाप समझा जाता था। परन्तु सदैव ही से भारत में कन्या इतनी-पतिता न थीं। प्राचीन काल में वे ब्रह्मविद्या की अधिष्ठात्री महापण्डिता, प्रवल वाग्विद्या विलासिनी होती थीं। वे सहस्त्रों विद्वानों की सभाओं में शास्त्रार्थ करके दिग्विजयी पण्डितों के दांत खट्टे करती थी, वे युद्ध क्षेत्र में पति के कन्धे से कन्धा भिड़ाकर लोहा लेती थीं। संसार के जीवन क्षेत्र में वे अवाध रीति से पुरुषों के समान ही अधिकार रसती थीं, खेद है कि हिन्दु समाज ने स्वार्थ और