जितना विश्वास हो, तथापि यह असम्भव है कि उनसे कभी गलती ही न हो। गलती हो सकती है। जब तक ये लोग अपने विरोधियों के मन का हाला अच्छी तरह न समझ लें, और इस बात का विचार न करले कि वे क्या कहते हैं, तब तक यह बात नहीं मानी जा सकती कि जिस सिद्धान्त पर, जिस मत पर, या जिस राय पर, वे लट्ट हो रहे हैं उसके विपय में जो कुछ जानने योग्य है वह सब वे जानते हैं। चाहे जो मत हो, चाहे जो बात हो, उसके अकसर दो टुकड़े होते हैं-एक प्रधान, दूसरा अप्रधान। प्रधान टुकड़े को जान लेने से, मुख्य बात को समझ लेने से, अप्रधान और अमुख्य का ज्ञान प्राप्त करने में बड़ी मदद मिलती है। परन्तु इन लोगों का परिचय प्रधान बात से बिलकुल ही नहीं रहता। ये लोग यह नहीं जानते कि ऊपर से जिन दो चीजों में परस्पर भिन्नभाव मालूम होता है उनका मेल किस तरह करना चाहिए, अर्थात् उनकी अभिन्नता किस तरह सिद्ध करना चाहिए। और न ये यही जानते हैं कि यदि दो बातें बराबर सबल और बराबर सप्रमाण देख पड़ें तो उनमेंसे किसको मानना और किसको न मानना चाहिए। ये लोग उस आदमी की कदापि बराबरी नहीं कर सकते जिसने दोनों पक्षवालों की-दोनों दलवालों की दलीलों को ध्यान से सुना है, और उनके तथ्यांश को जानकर बिना जरा भी पक्षपात के, अपनेको निर्धान्त निश्चय तक पहुंचने के योग्य बना लिया है। जो लोग पक्षपात छोड़कर दोनों पक्षवालों की बातें नहीं सुनते और दोनों पक्षवालों के प्रमाण-प्रमयों को सूब नहीं समझ लेते वे कभी किसी विषय का न्याय-सङ्गत फैसला नहीं कर सकते। जो इन बातों को सुनते और समझ लेते हैं वे विवाद-सम्बन्धी विपय के सत्यांश को जितना जान सकते हैं उतना दूसरे हरगिज नहीं जान सकते। विरोधी की विरोधगर्भित बातों को सुनने की, विपक्षी की दलीलों का जवाब देने की, बहुत बड़ी जरूरत है। नीति और व्यवहारशासा से सम्बन्ध रखनेवाली बातों का सञ्चा ज्ञान प्राप्त करने के लिए तो इस प्रकार की शिक्षा की यहां तक जरूरत है कि यदि बड़े बड़े सिद्धान्तों का विरोध करनेवाला कोई न हो तो उसकी कल्पना कर लेना चाहिए; अर्थात विरोध करने के लिए किसी आदमी को जबरदस्ती खड़ा करना चाहिए; और प्रतिकूल पक्ष का अत्यन्त चतुर और चाणाक्ष वकील जितनी मजबूत दलील, या जितने प्रबल आक्षेप, कर सकता हो उन सबको उस कल्पित विरोधी के मुंह से सुनना चाहिए।
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स्वाधीनता।