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दूसरा अध्याय।


कुछ कहने का मौका आता भी है तो, जिन बातों को वे दिलसे नहीं चाहते उनसे अपने नये विचारों का मेल मिलाने की वे कोशिश करते हैं। ऐसी हालत में स्पष्टवादी, निडर, समदर्शी कुशाग्र बुद्धि और सच्चे तार्किकों की उत्पत्ति ही बन्द हो जाती है। इस तरह के सत्पुरुप पहलो जिस मानसिक सृष्टि के भूषण थे वह सृष्टि बिना इनके धीरे धीरे निस्तेज और शोभाहीन हो जाती है। यदि दो चार विचारशील पुरुष पैदा होते भी है तो ऐसे होते हैं कि वे सिर्फ रूढ़ि या रीति-रवाज के दास होते हैं; उसकी सीमा के बाहर जानेका उन्हें साहस नहीं होता। अथवा जैसा समय आता है वैसा ही उनका बर्ताव भी होता है-अर्थात् ससय की तरफ नजर रखकर यदि हो सकता है तो वे सत्यानुकूल जन-साधारण का फायदा कर देते हैं; अन्यथा नहीं। ऐसे आदमी अपने पक्ष-अपने सिद्धान्त-की मजबूती के खयाल से जो कुछ कहते हैं वह सिर्फ सुननेवालों को अपनी तरफ खींच लेने ही के इरादे से कहते हैं। उनकी बातों से उनके कथन उनका निज का विश्वास नहीं रहता। अर्थात् जो कुछ वे कहते हैं दिल से नहीं कहते। जिनको इस तरह का दम्भ पसन्द नहीं; जिनके मुंह में एक और पेट में एक नहीं है, वे बड़ी बड़ी बातोंपर विचार ही नहीं करते। अपनी बुद्धि को आकुञ्चित करके उसे वे सिर्फ क्षुद्र बातों के विचार और उनकी विवेचना में लगाते हैं। जिन छोटी छोटी व्यावहारिक बातों पर कुछ कहने ले सामाजिक सिद्धान्तों की सचाई की हानि नहीं होती उन्हींपर विचार करके वे चुप रह जाते हैं। पर, इस तरह की विवेचना से कुछ फायदा नहीं होता। क्योंकि वे बातें इतनी छोटी होती हैं

-इतनी साधारण होती हैं कि मनुष्य का मन सवला, प्रौढ़ और अधिक ग्राहक होने पर दे आप ही आप ध्यान में आ जाती हैं। परन्तु यदि मन का विकास न हुआ तो हजार विचार और विवेचना करने पर भी मन में उनकी उत्पत्ति ही नहीं होती-मन में वे बातें आती ही नहीं। इधर यह हानि हुई। उधर मनुष्य के मन को विकसित करनेवाली, उसमें प्रौढ़ता करनेवाली विवेचना-शक्ति क्षीण हो जाती है। गम्भीर विषयों पर निर्भय और प्रतिबन्धहीन विवेचना बन्द हो जाने से वह शक्ति रह कैसे सकती है?

किसी किसीका यह भी खयाल है कि जो नास्तिक हैं, अधामिक हैं, पाखण्डघादी हैं उनके चुप रहने से, उनको विचार और विवेचना की स्वाधीनता न देने से, समाज का कुछ भी नुकसान नहीं होता। ऐसे आदमियों को