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दूसरा अध्याय


कुछ बातें ऐसी हैं जो वास्तव में हैं झूठ पर देखने में सच मालूम होती हैं। उनको एक ने सच कहा, दूसरे ने सच कहा, तीसरे ने सच कहा-इस तरह, धीरे धीरे, बहुत आदमी उन्हें सच मानने लगते हैं। यहां तक कि कुछ दिनों में वे सर्व-सम्मत हो जाती हैं। परन्तु तजरबे से उनकी सचाई नहीं सिद्ध होती। यह सिद्धान्त कि सत्य का प्रचार करनेवालों को सताने से सत्य का लोप नहीं होता, इसी तरह का है। अर्थात् लोगों ने उसे सच मान लिया है; दरअसल है वह झूठ। द्वेष, द्रोह और विरोधके कारण सत्य का उच्छेद हो जाने के अनेक उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं। इन उदाहरणों से बात निर्विवाद सिद्ध है कि सत्य का प्रचार करनेवालों को सताने से यदि सत्य का समूल नाश न भी हुआ तो भी वह सैंकड़ों वर्ष पीछे पड़ जाता है। अर्थात् वह सत्य इतना दब जाता है कि सौ सौ दो दो सौ वर्ष तक फिर वह सिर नहीं उठा सकता। यहांपर मैं सिर्फ धर्मसम्बन्धी दो चार उदाहरण देना चाहता हूं।

जरमनी में मार्टिन लूथर नाम का एक धार्मिक विद्वान् हो गया है। उसकी गिनती बहुत बड़े सुधारकों में है। रोमन कैथलिक सम्प्रदाय के धर्माचार्य पोप और उसके अनुयायी धोपाध्यायों पर उसकी अश्रद्धा हो गई। उसने बाइबल का अनुवाद पहले पहला जरमन भाषा में किया और यह सिद्धान्त निकाला कि जिस बात को अक्ल कबूल करे उसीको सच मानना चाहिए। इस सिद्धान्त के प्रचार में उसे कामयाबी भी हुई: परन्तु लूथर के पहले इस सुधार के बीज का अंकुर कम से कम बीस दफे तो उगा होगा; पर, मीलों दफे, राग-द्वेष के कारण इन अंकुरों का उच्छेद ही होता गया। लूथर के बाद भी जहां जहां द्रोह और द्वेप से काम लिया गया और नये सिद्धान्तों के प्रचारकों का जोरोशोर से विरोध किया गया वहां वहां सत्य की हार ही हुई; जीत नहीं हुई। स्पेन, इटली और आस्ट्रिया आदि देशों से प्राटेस्टेण्ट मत समूल ही नाश कर दिया गया;


  • यहां पर मिल साहब ने सात आठ नाम समाज और धर्म-संशोधकों के दिये हैं । उनको हमने छोड़ दिया है; क्योंकि यहां बहुत कम आदमी उन्हें जानते हैं। लोगों ने उनको यहां तक सताया कि उनके सिद्धान्तों का प्रचार न हुआ।