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स्वाधीनता।


माना जा सकता। इस प्रकार अभ्रान्तिशीलता ग्रहण करना उलटा और भी अधिक अनिष्टकारक होता है। यही वे प्रसङ्ग हैं जिनमें एक पुश्त के आदमी ऐसी ऐसी भयङ्कर गलतियाँ करते हैं जिनका ख्याल करते ही अगली पुश्तवालों को आश्चर्य होता है और उनके रोंगटे खड़े हो जाया करते हैं। यही वे प्रसङ्ग हैं जिनके कारण इतिहास में बहुत बड़े बड़े मारके की बातें हो जाया करती हैं। यही वे प्रसङ्ग हैं जिनकी प्रेरणा से कानून की बलवान् भुजा बड़े बड़े महात्मों और बड़े बड़े उदार मतों को जड़ से उखाड़कर फेंक देती है। इस बात को याद करके अपार दुःख होता है कि ऐसे ही प्रसङ्गों में पड़कर बड़े बड़े सत्पुरुषों का-बड़े बड़े महात्मों का-समूल ही निर्मूलन हो गया! पर, हां, यह जानकर कुछ सन्तोष होता है कि उनके मतों का कुछ अंश अब तक बाकी है। जो लोग ऐसे मतों का प्रतिवाद करते हैं, जो लोग ऐसे मतों की प्रतिबन्धकता करते हैं, मानो उनकी दिल्लगी करने ही के लिए वे अब तक विद्यमान हैं; मानो अपने पक्षवालोंकी युक्तियोंको सत्य सावित करने ही के लिए वे अबतक बने हुए हैं।

इस बात की याद दिलाने की जरूरत नहीं कि साक्रेटिश कौन था? उसे कौन नहीं जानता? उसका यश संसार में कहां नहीं फैला हुआ है? तथापि उस समय के समाज का जो मत था साक्रेटिस का मत उससे जुदा था। इसलिए दोनों में विरोध उत्पन्न हुआ। उस समय के कानून की भी राय वैसी ही थी जैसी कि समाज की थी। अर्थात् समाज और कानून दोनों का मत एक था। पर साक्रेटिस का मत उससे जुदा था। यह बात इतने महत्त्व की है कि इसका बार बार जिक्र करना भी अप्रासंगिक न होगा। जिस देश और जिस समय में साक्रेटिस का जन्म हुआ उस देश और उस समय में कितने ही बड़े बड़े आदमी हो गये हैं। जो लोग साक्रेटिस से, और जिस समय वह हुआ उस समय, से अच्छी तरह परिचित थे उन्होंने लिख रक्खा है कि साक्रेटिस सबसे अधिक नीतिमान् और पुण्यात्मा था। यह उन लोगों की राय हुई। मेरी राय तो यह है कि साक्रेटिस के बाद जितने सद्गुणी, नीतिशील और धार्मिक पुरुष हुए उन सबमें वह श्रेष्ठ था। यही नहीं, किन्तु अपने अनन्तर होनेवाले सभी सात्विक पुरुषों के लिए वह आदर्शरूप था। प्रसिद्ध तत्त्ववेत्ता लेटो क मन में दर्शनशास्त्र-सम्बन्धिनी जो उदार प्रेरणा हुई-जो उदार परिस्फूर्ति हुई-उसका कारण साक्रेटिस ही था। यहां तक