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दूसरा अध्याय।


अच्छा, पहले, मैं पहली बात का विचार करता हूँ। सम्भव है कि जिस राय को अधिकार के बल पर—हुकूमत के जोर पर—अर्थात् बलात्कार से दबाने की चेष्टा की जा रही है वह सत्य हो। उसे दबाने या रोकने की इच्छा रखने वाले उसकी सत्यता को जरूर ही अस्वीकार करेंगे; उसे वे जरूर ही झूठ ठहरावेंगे। इसमें कोई सन्देह नहीं; और यह कोई नई बात भी नहीं। पर वे इस बात का दावा नहीं कर सकते कि वे अभ्रान्तिशील हैं; अर्थात् वे कभी गलती नहीं करते; उनसे कभी भूल नहीं होती। उनको इसका अधिकार नहीं है, उनको इसका मजाज नहीं है, कि जिस बात का सम्बन्ध सारी दुनिया से है उसका फैसला वही कर दें; अर्थात् दुनिया भर की तरफ से यही न्यायाधीश का काम करें; और बाकी सबको उसके हानि-लाभ का विचार करने से रोक दें। यदि कोई यह कहे कि जिस बातकी विवेचना का लोप करने या उसे दबाने की कोशिश की जा रही है उसका लोप करने या उसे दबाने की इच्छा रखनेवाले उसे झूठ जानते हैं; इसी लिए वे उसकी विवेचना की जरूरत नहीं समझते; तो मानो वे इस बात को कुबूल करते हैं कि उनका साधारण निश्चय और सन्देहहीन निश्चय एक ही चीज है। अर्थात् यकीन और यकीन कामिल में कोई भेद ही नहीं है–जिस निश्चय में सन्देह का अत्यन्ताभाव रहता है उसमें और मामूली निश्चय में कोई अन्तर ही नहीं है। अथवा यह कि जिस बात को वे सन्देहहीन समझते हैं उसे सारी दुनिया भी वास्तव में सन्देहहीन समझती है। विचार, विवेचना, तकरीर या बहस को बिलकुल ही बन्द कर देना मानो प्रमादहीन, निर्भ्रान्त, अस्खलितबुद्धि या अचूक होने का दावा करना है। अतएव इस बात का खण्डन करने के लिए, कि किसीकी कुछ न सुनकर किसी बात की विवेचना को बन्द करना बड़ी भारी भूल है, यही दलील काफी है। जो प्रमाण यहाँपर दिया गया है वही बस है। यह प्रमाण यद्यपि एक साधारण प्रमाण है–यह दलील यद्यपि एक मामूली दलील है–तथापि इसके साधारण या मामूली होने से इसकी कीमत कम नहीं हो सकती।

जब लोग किसी बात का विचार तात्त्विक या शास्त्रीय दृष्टि से करते हैं तो वे अपनेको जितना भान्तिशील, स्खलितबुद्धि या सचूक समझते हैं उतना व्यावहारिक दृष्टि से उसका विचार करते समय वे नहीं समझते। यह अफसोस की बात है। हर आदमी यह जानता है कि मैं भ्रान्तिशील हूं; मैं