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पहला अध्याय।

अवस्था, स्थिति और रुचिके अनुसार जो जिस तरह का रोजगार करना चाहे उसे उस तरह का रोजगार करने देने की स्वाधीनता उसे होनी चाहिए। किये का फल भोगने के लिए तैयार रहने पर हर आदमी को अपनी अपनी इच्छा के अनुसार काम करने की स्वाधीनता भी मिलनी चाहिए; फिर, चाहे वह काम दूसरों की दृष्टि में मूर्खता, विरोध और भूलों से भरा हुआ ही क्यों न हो; परन्तु, हां, उससे दूसरोंको हानि न पहुंचनी चाहिए। यदि इस प्रकार की स्वाधीनता हर आदमी को दी जा सकती है, तो वह एक से अधिक आदमियों को भी दी जा सकती है। क्योंकि जिन कारणों से, अलग अलग, हर आदमी को वह मिल सकती है उन्हीं कारणों से वह जन-समुदाय को भी मिल सकती है। परन्तु शर्त यह है कि जन-समुदाय के सब आदमी वयस्क अर्थात बालिग हों और किसीने उन को जबरदस्ती या धोखा देकर उस समुदाय में न शामिल किया हो। इस हालत में जिन कामों से दूसरों को हानि न पहुंचती हो उन्हें, मिलकर करने के लिए, जन-समुदाय को भी स्वाधीनता दी जा सकती है।

जिस समाज में—जिस लोक-समुदाय में—इस तरह की स्वाधीनता का आदर नहीं है वह समाज स्वाधीन नहीं कहा जा सकता; फिर, वहां की राज्यव्यवस्था चाहे जैसी हो। कोई देश, कोई समाज, या कोई जन-समुदाय, जिस में इस तरह की स्वाधीनता पूरे तौरपर और बिना किसी प्रतिबन्ध या रोकटोक के नहीं दी जाती वह सब प्रकारसे स्वाधीन नहीं माना जा सकता। पर स्वाधीनता कहते किसे हैं? उसकी स्थूल परिभाषा क्या है? दूसरों को किसी तरह की हानि न पहुँचाकर, और अपने हितके लिए किए गये दूसरों के यत्न में बाधा न डालकर, जिस तरह से हो उस तरह अपने स्वार्थ-साधन की आजादी का नाम स्वाधीनता है। उस को ही स्वाधीनता कहना शोभा देता है। अपने मन, अपने शरीर और अपनी आत्माका ही आदमी मालिक है। उन्हें अच्छी हालत में रखने के लिए सब को बराबर अधिकार है। इस अधिकार में कोई दस्तन्दाजी नहीं कर सकता। इस विषय में दूसरों की इच्छा के अनुसार हर आदमी को बर्ताव करने के लिए लाचार करने की अपेक्षा उसे जैसा अच्छा लगे वैसा करने देने में मनुष्यजाति का अधिक फायदा है।