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स्वाधीनता।


जाना उचित है जो दूसरों से बिलकुल ही सम्बन्ध नहीं रखती; अर्थात् उनले समाज का न तो कोई फायदा ही है और न कोई नुकसान ही। और यदि कुछ है भी तो बहुत ही अप्रत्यक्ष रीति से है। ऐसी बातें ब हैं जिनका सम्बन्ध सिर्फ उन्हीं लोगों से है जिनकी वे हैं; या, यदि, किसी दूसरे से भी है तो वह सम्बन्ध बलपूर्वक अर्थात् जबरदस्ती नहीं हुआ है; किन्तु खुशी से भनुमति-पूर्वक हुआ है। मतलब यह है कि जो सम्बन्ध हो वह प्रत्यक्ष रीति पर हो और देखने के साथ ही दूसरों को उसका ज्ञान हो जाय। जो आदमी जिस समाज का है उसके व्यवहारोंका कुछ न कुछ असर उसके द्वारा समाज पर जरूर ही पड़ता है। परन्तु इस आक्षेप के उत्तर में यहां पर मैं कुछ नहीं कहना चाहता। इसका विचार मैं आगे चलकर यथास्थान करूंगा। तो, मान लीजिए कि ऐसी बातों के लिए हर आदमी को स्वाधीनता देना मुनासिब है। अव यह देखना है कि इस प्रकारकी स्वाधीनता में कौन कौनसी बातें शामिल होनी चाहिए। पहले तो इसमें सब प्रकार का अन्तान अर्थात् अन्तर्बोध, सम्वेदन या सत् और असत् के पहचानने की बुद्धि, शामिल होनी चाहिए। बहुत व्यापक अर्थ की बोधक सदसद्विवेक-बुद्धि की स्वाधीनता; विचार और मनोविकारों की स्वाधीनता; धर्म, नीति और विज्ञान से सम्बन्ध रखनेवाले, व्यवहारिक अथवा सात्विक, मतों की स्वाधीनता; ये सब इसी प्रकार की स्वाधीनता के भीतर समझी जानी चाहिए। किसी भी विषय में जिसकी जो राय है, उसको अपने मन में ही रखने और सर्व-साधारण में प्रकाशित करने में बड़ा अन्तर है। कोई विकार या विचार जबतक मन में रहता है तबतक उसका सम्बन्ध किसी ओर से नहीं होता; परन्तु प्रकाशित होते ही उसका सम्बन्ध दूसरों से भी हो जाता है। इसका विचार मैं आगे करूंगा कि हर आदमी को अपनी राय जाहिर करने के लिए कहां तक स्वाधीनता दी जा सकती है। यहां पर मैं इतना ही कहना बस समझाता हूं कि हर आदमीको अपनी राय जाहिर करने के लिए स्वाधीनता देना उतने ही महत्त्वकी बात है जितने महत्वकी बात उसे उस राय को मन में कायम करने के लिए स्वाधीनता देना है। इसीसे ये दोनों बातें व्यवहार में बिलकुल एक दूसरे से मिली हुई मालम होती हैं। जिस प्रकार की स्वाधीनता के विपयों में लिख रहा हूं उसमें रुचि की स्वाधीनता और जो जैसा उद्योग करना चाहे उसे करने की भी स्वाधीनता शामिल है। अर्थात अपने स्वभाव,