ही काम है। वह यह कि पूरे तौर पर वह किसी अकबर, या शार्लमेन,[१] के आधीन रहे—यदि सौभाग्य से वह उसे मिल जाय। अपने आप या दूसरों के द्वारा उत्साहित की जाने पर जब मनुष्य-जाति अपनी तरक्की का रास्ता आप ही ढूंढ निकालने के लायक हो जाती है (जिन देशों के विषय में मैं यहीं पर लिख रहा हूं उनको इस लायक हो चुके बहुत बरसैं हो गई) तब प्रत्यक्ष रीति से या दी हुई आज्ञा का पालन न करने के कारण दण्ड आदि देकर अप्रत्यक्ष रीति से उसीके हित के लिए, उस पर बल-प्रयोग करना, अर्थात् जबरदस्ती कोई काम कराना, गैरमुनासिब है। इस तरह की जबरदस्ती तभी मुनासिब समझी जा सकती है जब वह दूसरों की रक्षा के लिए की जाय। अर्थात् जब किसी के अनुचित व्यवहार के कारण औरों को तकलीफ पहुँचने का डर हो तभी उस अनुचित व्यवहार करनेवाले को बलपूर्वक राह पर लाना मुनासिब है।
जिस सिद्धान्त का वर्णन मैंने ऊपर किया वह केवल उपयोगिता के ही आधार पर किया। इस लिए, यहाँ पर यह कह देना उचित होगा कि यदि और किसी बात के आधार पर इस सिद्धान्त से कुछ फायदा होता हो तो मैं उसे नहीं मानता। नीतिशास्त्र से सम्बन्ध रखनेवाली जितनी बातें हैं उनकी जांच करते समय मैं उनकी उपयोगिता को ही सब से प्रधान समझता हूं। पर, इस उपयोगिता का अर्थ बढ़े विस्तार का है अर्थात् यह बहुत व्यापक है। आदमी को उन्नतिशील प्राणी समझकर उसके चिरस्थायी हितों की प्राप्ति को ही मैं सच्ची उपयोगिता समझता हूं। मेरा मतलब यह है कि इस तरह के चिरस्थायी हितों की प्राप्ति के लिए आदमी के जिन कामों से दूसरों का सम्पर्क है सिर्फ उन्हींसे सम्बन्ध रखनेवाली व्यक्ति-विशेष की स्वाधीनता में दस्तन्दाजी करना मुनासिब है। यदि कोई आदमी ऐसा काम करता है जिससे दूसरों को तकलीफ पहुँचती है तो उसे, कानून के द्वारा, या, यदि, कानून से काम लेने में सुभीता नहीं है तो बुरा भला कहके सजा देना, देखने
- ↑ शार्लमेन पहले फ्रांक्स लोगों का राजा था; पर पीछे से वह समग्र पश्चिमी योरप का हो गया। ८०० ईस्वी में उसे बादशाह की पदवी मिली। वह बहुत उदार, गुणवान्, विद्वान्, न्यायी और सदाचरणशील था। योरप का यह अकबर था।