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स्वाधीनता।


हार या चालचलन के जिस हिस्से से दूसरों का सम्बन्ध है सिर्फ उसीका वह जिम्मेदार है। सिर्फ उसीके लिए वह उत्तरदाता है। जिस हिस्से से सिर्फ उसीका सम्बन्ध है उसमें उसकी स्वाधीनता अखण्डनीय है; वह नहीं छीनी जा सकती। अपना, अपने शरीर का, अपने मन का हर आदमी मालिक है, हर आदमी बादशाह है।

यह कहने की जरूरत नहीं कि यह सिद्धान्त सिर्फ उन्हीं लोगों के काम में लाया जाना चाहिए जिनकी बुद्धि, जिनकी समझ, परिपक्व दशा को पहुँच गई है; अर्थात् जो बालिग हैं। मेरा मतलब बच्चों से नहीं, और न उन स्त्री-पुरुषों से है जो कानून के अनुसार वयस्क अर्थात् बालिग नहीं हुए। जो लोग अभी तक ऐसी अज्ञान-दशा में हैं कि दूसरों की देखभाल में रहना उनके लिए जरूरी बात है उनकी रक्षा बाहरी उपद्रवों से भी की जानी चाहिए और खुद उनके अनुचित कामों से भी। इसी नियम के अनुसार उस समाज उस जन-समुदाय के लिए भी यह सिद्धान्त नहीं है जिसके सभी आदमी अज्ञान, अतएव निकृष्ट अवस्था में हैं। जिस समाज के आदमी अज्ञान हैं, जंगली हैं, समझदार नहीं हैं, उसमें, बिना किसी की सहायता या जस्तन्दाजी के, आप ही आप सज्ञानता, सुधार या सभ्यता के पैदा होने में इतने अटकाव और इतने विन्न आते हैं कि उनको दूर करने के लिए उचित उपायों को जरूर काम में लाना पड़ता है। जिस देश का समाज ऐसा है उस का राजा, सच्चे उत्साह से प्रेरित होकर, समाज के हित करने की इच्छा से, यदि कोई भी उपाय, या साधन, काम में लाये तो वे उपाय और वे साधन अच्छे ही समझे जाने चाहिए। क्योंकि, यदि वे उपाय न किये जाय तो जिन बुराइयों को दूर करने के लिए उनकी योजना हुई है वे शायद और तरह से दूर ही न हों। जो लोग असभ्य हैं, जंगली हैं, उन पर सत्ता चलाने-हुकूमत करने में अनिर्बन्ध शासन, अर्थात् बिना बन्धन का ही राज्य, अच्छा होता है। पर शर्त यह है कि उन लोगों को सभ्य और शिक्षित बनाने के ही इरादे से इस तरह का राज्य हो; और वे सचमुच सभ्य और शिक्षित बना दिये जाय। स्वाधीनता का यह सिद्धान्त तब तक काम में लाये जाने के लिए नहीं है, जब तक मनुष्य जाति, अपने को एक दसरे की बराबरी का समझकर, बिना रोकटोक के, किसी भी विषय पर विचार करके, अपनी तरक्की करने के लायक न हो जाय। तब तक उसके लिए सिर्फ एक