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स्वाधीनता।


सकता कि ऐसे नियम बनानेवालों पर, समाज को फायदा पहुँचाने की प्रेरणा ने, कुछ असर नहीं पैदा किया। असर जरूर पैदा किया और बहुत किया। पर वह प्रेरणा सीधे मार्ग से खुलासा नहीं पैदा हुई; किन्तु एक डेढ़े मार्गसे हुई। अर्थात् यह समझ कर वह नहीं पैदा हुई कि समाज के फायदे का खयाल करना हमको उचित है अथवा उसकी तरफ नजर रखना हमारा काम है। परन्तु समाज को फायदा पहुंचाने की बुद्धि से जो रुचि या अरुचि ‘पैदा हुई वह प्रेरणा उसका परिणाम थी। इसका फल यह हुआ कि जिस हमदर्दी या नफरत, अर्थात् सहानुभूति या घृणा, से समाज का बहुत ही थोड़ा या बिलकुल ही सम्बन्ध न था, वह भी सामाजिक नियमों के बनने में काम में आ गई।

कानून से या बहुत आदमियों की राय से, दंड-कैद, जुरमाना, समाज की दृष्टि में तुच्छ समझा जाना इत्यादि-नियत हुए। उन दंडों के डरसे चाल-चलन और व्यवहार सम्बन्धी नियम अर्थात् कायदे बनाये गये। पर उन नियमों के काम लाये जाने का मुख्य कारण पूरे समाज, या उसके प्रवल भाग की रुचि या अरुचि ही समझना चाहिए। और, आम तौर पर, विचार और विकार में जो लोग समाज के अगुआ रहे हैं उन्होंने छोटी छोटी बातों पर चाहे जितना वाद-विवाद किया हो, पर मुख्य मुख्य बातों के आदि हेतु, प्रयोजन, जड़ यानी बुनियाद पर कभी विचार नहीं किया। अर्थात् उन्होंने इस तरह के आक्षेप कभी किये ही नहीं कि अमुक नियमों का बनाना योग्य है या अयोग्य। उन्हींने अपना मन सिर्फ इसके जानने में लगाया कि कौनसी बात समाजको पसन्द करना चाहिए और कौनसी करना चाहिए। बस, वे इसी विचार में लगे रहे। इस बात की तरफ उनका ध्यान ही नहीं गया कि समाज की रुचि या अरुचि के अनुसार हर आदमी को वर्ताव करने के लिये लाचार करना उचित है या नहीं। जिनकी यह राय थी कि समाज की रुचि या अतचि के ही खयाल से व्यवहार-सम्बन्धी नियम न बनाये जाने चाहिए उनको लोगोंने पाखण्डी समझा। उनकी जमात में मिलकर, स्वाधीनता की रक्षा के लिए उन्हींका ऐसा प्रयत्न करने की अपेक्षा, लोगों ने समाज के सिर्फ उन्हीं मनोविकारों को बदलना अच्छा खयाल किया जिन विकारों के कारण उनके और समाज के मत में फरक था।