हुई। बुद्धि को इस अनध्यात्म-युग में अहङ्कार-परिच्छिन्न आश्रय मिला भी तो क्या? हम अक्ल के दुश्मनोंने धर्म के बाजार में कुछ खरीदा तो, बस, एक अन्ध पक्षपात ही। और करते क्या, हमारी बुद्धि की पहुँच ही वहाँ तक थी। यह तो हुई हमारी बुद्धि की बात; अव हृदय की अत्यन्त अपमानित दशा को हम क्या कहें? दिल ही नहीं, दिल की बीती क्या बताएँ! हृदय में स्नेह-रस की तो एक बूँँद भी नहीं है। विषय-वासनाओं की आगने एकद्म नीरस करके ही इसे छोड़ा है। यह सूखा हुआ दिल रेगिस्तान को भी मात कर रहा है। हाँ, कहाँ है इस में वह कृष्ण का प्रेम, बुद्ध की दया और ईसा की सेवा? हृदय में कभी कर्म-शून्य कुछ कोमल वृत्तियाँ जागीं भी तो क्या? कभी-कभी पाप-जनित दुर्बलताओं से भी तो हमारी अन्तर्वृत्तियाँ कोमल हो जाया करती हैं! किन्तु, हे सुन्दरतम! ऐसी निर्जीव कोमल वृत्तियां की धुंधली आँखों से तेरा सुखद सौन्दर्य न अबतक दिखाई दिया है, न कभी दिखाई देगा। यह दुर्गति हुई है हमारे स्नेह-शून्य हृदय की! अब, आत्मा हमारी कैसी होगी, यह तो हमारी बुद्धि-शून्यता और हृदय-हीनता से ही प्रकट हो गया ह़ोगा। जैसे हमने धर्म और ईश्वर को अपने संकीर्ण स्वार्थ के साँचे में ढाल रखा है, उसी तरह अपनी आत्मा को भी हमने झूठी अहन्ता में परिणत कर लिया है। हमारी नज़र में आज अपना मतलब तो मजहब है,
पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/३१०
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४५