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स्वाधीनता।


राजा और प्रजा में विद्रोह पैदा हुआ, उस समय, इस सिद्धान्त को कुछ धक्का जरूर पहुंचा। परन्तु उस समय राज्यसत्ता प्रजा के हाथ में आने पर भी, केवल प्रजा के फायदे के लिए, वह काम में नहीं लाई गई। उस समय जो बहुत से अनर्थ हुए उनका कारण वही दो चार आदमी थे जिन्होंने राज्यसत्ता को राजा से छीन लिया था। फ्रांस का विद्रोह राजा के, और कुछ बड़े बड़े आदमियों के भी, अन्यायका फल था। इस लिए यह समझना भूल है कि प्रजासत्तात्मक राज्य के होने से ऐसे अनर्थ हुआ ही करते हैं। कुछ दिनों में दुनिया के एक बहुत बड़े भाग, अमेरिका, में प्रजासत्तात्मक राज्य की स्थापना हुई। यह राज्य, थोड़े ही दिनों में, दुनिया के और और बलवान् राज्यों की तरह, बली भी हो गया। अतएव, कोई बहुत बड़ी घटना होने से जिस तरह लोग उसके विषय में बात-चीत करने लगते हैं-उसकी आलोचना आरम्भ करते हैं-उसी तरह प्रजासत्तात्मक राज्य के विषय में भी लोगों ने बात-चीत आरम्भ कर दी। यह अब उनके ध्यान में आया कि "अपना राज्य," "अपना शासन" "और अपने ही ऊपर अपनी सत्ता" इत्यादि महाविरे उन बातों को ठीक ठीक नहीं जाहिर करते जिनके जाहिर करने के लिए वे काम में लाये जाते हैं। यह भी उनके ध्यान में आया कि जो लोग सत्ता, अर्थात् हुकूमत, चलाते हैं वे, और जिन पर उनकी सत्ता चलती है वे, दोनों, एक ही नहीं होते। अर्थात् “प्रजा" शब्द से उन दोनों का बोध नहीं होता। और, यह भी उनके ध्यान में आया कि "आत्म-शासन " अर्थात् “ अपने ऊपर अपनी सत्ता" अपने ही ऊपर शासन करने या सत्ता चलाने का नाम नहीं है, किन्तु वह औरों के द्वारा अपने ऊपर शासन किये जाने, या सत्ता चलाने, का नाम है। वे यह भी समझ गये कि व्यवहार में, "प्रजा की इच्छा" का मतलब या तो बहुत आदमियों की इच्छा से है; या उन लोगों की इच्छा से है जो काम करने में अगुवा हैं, या जिनकी संख्या बहुत है, या जिन्होंने और लोगों से अपनी संख्या का बहुत होना कुबूल करवा लिया है। इस दशा में, यह सम्भव है, कि प्रजा कहलाने वाले लोग अपने ही में से कुछ आदमियों पर जुल्म करने लगे, अन्याय करने लगें, सस्ती करने लगे। अतएव, जै और किसी अनुचित सत्ता या शक्ति को रोकने की जरूरत है वैसे ही प्रजा की भी अनुचित सत्ता को रोकने की जरूरत है। सत्ताधारी लोग, अर्थात् हाकिम, प्रजा के