समस्त प्रचलित धर्मो का आमूल संशोधन करे तो करे,
नहीं तो यह पथ भ्रष्ट संप्रदाय-समूह मानव-समाज को
एक-न-एक दिन ले डूवेगा। संकीर्णता तो अब अपनी
सीमा से भी आगे निकल चुकी है। सर्वात्मन् ! तेरी
विश्व व्यापकता को तो लोग भूल ही गये हैं । सर्वत्र हृदय-
हीनता का ही साम्राज्य है। हाथ की उच्चता, मस्तक की
नम्रता और हृदय की विशालता का तो मानों कोई चिह्न ही
नहीं रहा है। हमारे भीतर कितना भोलापन आ गया है !
लड़ते-झगड़ते तो आपस में हम लोग हैं, पर चोटें सब तेरे
ही ऊपर पड़ती हैं। मंदिर तोड़े जाते हैं तो तेरे और
मसजिद गिराई जाती है तो तेरी । हिन्दू मारा गया तो
तेरा ही एक पुत्र गया, और मुसलमान का खून हुआ तो
तेरा ही एक बेटा जान से हाथ धो बैठा । तुझ पर कैसी
लाठियाँ पड़ रही हैं ! कोई तेरे दाहने हाथ पर चोट
करता है, तो कोई बाएँ हाथ पर । मूर्ख जानते हुए भी
यह नहीं जानते, कि दोनों हाथ हैं तो परमपिता विराट्
पुरुष के ही । तूने कव यह आज्ञा दो, कि तलवार के जोर
से मजहब फैलाया जाय ? विचार-धारा किसी की चाहे
जिधर वह रही हो, पर अपनी जाति-संख्या बढ़ाने की ही
दृष्टि से उसकी शुद्धि कर ली जाय, भगवन, इस
प्रकार के धर्म-प्रचार से क्या तू सहमत है ? राजनीतिक
शतरंज के खेल में धर्माशाओं का दाव-पेच लगाना भी
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