पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/२८९

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है। रिज़र्व्ड मन्दिरों के भीतर जनसाधारण का जाना यदि मना है, तो मेरे लिए भी उनके दरवाजें सदा को बन्द हैं। अपने लिए मैं कोई रिआयत नहीं चाहता। बाहर ही से मैं तेरा दर्शन ले लियो करता हूँ। मेरा आज भी कुछ ऐसा विश्वास है, कि तेरे दरबार में तो दीन-दुर्बल का ही आदर होता है। जहाँ दीन और दलित दुतकारे जाते हों, वह तेरा दरबार ही नहीं है। महात्मा ईसा के इस सद्वचन पर मेरी बड़ी श्रद्धा है, कि "स्वर्ग के राज्य में अभिमानी धनवान् का प्रवेश असंभव है।' झूठे दींदार अपनी ज़बरदस्ती से दौलत के पुतलों को स्वर्ग के राज्य में ठेलठालकर ले जाना चाहते हैं, पर वे वहाँ घुसने न पायँगे, यह निश्चय है। वे ही वहाँ प्रवेश पा सकेंगे, जो आज यहाँ जाने से रोके जा रहे हैं। धर्म के नक्कालों की धाँधलीयों कबतक चलेगी? ये मजहबी मक्कार दुनिया की ही आँखों में धूल झोंक सकते हैं, तेरी आँखों में नहीं। झूठे-सच्चे का असली पारखी तो तू हैं, मेरे जीवन-जौहरी! उन्हीं प्रेमियों को तू अपने दया-दरवार में बुलायगा, या खुद ही उनके पास खिंचकर चला आयगा, जिनके कसकीले दिल तुझसे मिलने के लिए, बिन-पानी की मछली की नाई, तड़प रहें होंगे। वे जैसे मन्दिर के भीतर, तैसे मन्दिर के बाहर। लिये बैठे रहें वे पवित्र पुजारी अपने मन्दिर और अपने ठाकुर। जैसा करेंगे, वैसा भरेंगे। गोविन्द! तेरा एक नाम

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