पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/२७४

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नहीं, कि लाखों-करोड़ों भूले-भटके यात्रियों को धर्म-मजहबों-ने उनके लक्ष्य-स्थान तक, मंज़िले मक़सूद तक, पहुँचाया, अनायास मुक्ति-लाभ कराया। जो किया वह अच्छा किया, ख़ूव किया। पर आज? तब का वह ज़माना ही नहीं रहा। तब तब था, अब अब है। प्रकृति-परिवर्तन की लीला निराली है। आज न वह बाग़ है, न वह बहार है। हाँ, सभी कुछ बदल गया है। जो धर्म क़ैदे दुनिया से छुड़ानेवाला था, उसीने आज मक्कारी की मज़बूत रस्सियों से हमें जकड़कर बाँध रखा है। और सारी बातें तो अब भी उस धर्म-नगरी में मौजूद हैं, पर प्यारे सिरजनहार, एक तू ही वहाँ लापता है। बारात तो है, पर दूलह नहीं है। उस सुन्दर उद्यान में आज भी फूलों की कमी नहीं है, पर करें क्या ऐसी रंग-बिरंगी फुलवारी को लेकर, जिसमें तेरी लगन की न वह भीनी-भीनी महक हो, न तेरे प्रेम का वह प्यारा-प्यारा पराग?

धर्म के संचालकोंने यह बुरा किया है, बहुत बुरा किया है। मूर्ख तेरी ब्रह्माण्ड-व्यापिनी सत्ता का उपहास कर रहे हैं! तेरी तौहीन कर रहे हैं वे अनाड़ी ज़ाहिद! वे लोग वहाँ बैठे-बैठे न जाने क्या-क्या करते हैं और मढ़ते हैं सब तेरे मत्थे! वे अपनो मतलवी वाणी को 'आकाश-वाणी' कहते हैं! अपनी काली करतूतों को ईश्वरीय कर्मों की सफ़द सूची में रखते हैं! उनकी समझ में उनका प्रत्येक कार्य