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तो उसे दण्ड कौन देगा? जिन लोगों के कामकाज का सर्वसाधारण से सम्बन्ध है उनकी निन्दा सुनकर सब लोग जब तक उनका धिक्कार नहीं करते तब तक उनको धिकाररूप उचित दण्ड नहीं मिलता। जो लोग इन दलीलों को नहीं मानते वे शायद अखवारवालों से किसी दिन यह कहने लगे कि तुमको जिसकी निन्दा करना हो, या जिसपर दोष लगाना हो, उसे अखवार में न प्रकाशित करके चुपचाप उसे लिख भेजो! परन्तु जिनकी बुद्धि ठिकाने है-जो पागल नहीं हैं-वे कभी ऐसा न कहेंगे।

कल्पना कीजिए कि किसीकी राय या समालोचना को बहुत आदमियों ने मिलकर झूठ ठहराया। उन्होंने निश्चय किया कि अमुक आदमी ने अमुक सभा, समाज, संस्था या व्यक्ति की व्यर्थ निन्दा की। तो क्या इतने से भी उनका निश्चय निभ्रांन्त सिद्ध होगया? साक्रेटिसपर व्यर्थ-निन्दा करने का दोष लगाया गया। इसलिए उसे अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ा। परन्तु इस समय सारी दुनिया इस अविचार के लिए अफसोस कर रही है और साक्रेटिस के सिद्धान्त की शतमुख से प्रशंसा हो रही है। क्राइस्ट के उपदेशों को निन्द्या समलकर यहूदियों ने उसे सूली पर चढ़ा दिया। फिर क्यों आधी दुनिया इस निन्दक के चलाये हुए धर्म को मानती है? चौद्धों ने शङ्कराचार्य को क्य अपने मत का व्यर्थनिन्दक नहीं समझा था? फिर बतलाइए यह सारा हिन्दुस्तान क्यों उनको शङ्कर का अवतार मानता है? जब सैकड़ों वर्ष वाद-विवाद होने पर भी निन्दा की यथार्थता नहीं साबित की जा सकती तब किसी बात को पहले ही से कह देना कि यह हमारी व्यर्थ निन्दा है, अतएव इसे मत प्रकाशित करो, कितनी बड़ी धृष्टता का काम है? निन्दाप्रतिवन्धक मत के अनुयायी ही इस धृष्टताका-इस अविचार का-परिमाण निश्चित करने की कृपा करें। जिन लोगों का यह खयाल है कि 'व्यर्थ-निन्दा' के प्रचार को रोकना अनुचित नहीं है वे सदय-हृदय होकर यदि मिल साहब की दलीलों को सुनेंगे, और अपनी सर्वज्ञता को जरा देर के लिये अलग रख देंगे, तो उनको यह बात अच्छी तरह मालूम हो जायगी कि वे कितनी समझ रखते हैं। निन्दाप्रतिबन्धक मत के जो पक्षपाती मिल साहब की मूल पुस्तक को अँगरेजी में पटने के बाद 'व्यर्थ निंदा' रोकने की चेष्टा करते हैं उनके अज्ञान, हठ और दुराग्रह की सीमा और भी अधिक है। परन्तु यदि उन्होंने मूल पुस्तक को नहीं पढ़ा तो अब वे कृपापूर्वक इस अनुवाद को पढ़ें। इससे उनकी समझ