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पांचवां अध्याय ।


ठीक कल्पना ही लोगों को नहीं है; और यदि है भी तो वह कल्पना यथा- स्थान नहीं है । अर्थात् उस स्वतंत्रता का जैसा प्रयोग होना चाहिए वैसा नहीं होता। यही कारण है जो सन्तान-विषयक अपने कर्तव्य को पालन करने में गवर्नमेंट को अनेक विघन् और बाधाओं का सामना करना पड़ता है। लोगों को इस बात का इतना अधिक पक्षपात है-उनको इस वात की इतनी अधिक हठ है कि उनकी राय में सन्तति पर माँ-बाप की पूरी और अनन्य साधारण सत्ता है । वे कहते हैं कि इस सत्ता में जरा भी दस्तं. दाजी करने का किसी को अधिकार नहीं । इन बातों को सुन कर यह खयाल होता है कि " आत्मा वै जायते पुत्रः "-अर्थात् पिता की आत्मा का ही दूसरा रूप पुत्र है-यह उक्ति आलङ्कारिक नहीं, किन्तु अक्षरशः सच है। खुद बाप की स्वतंत्रता में चाहे जितनी दस्तंदाजी हो, इसकी लोग कम परचा करेंगे । पर बेटे के सम्बन्ध में वाप को लोगों ने जो स्वतंत्रता दी है उसमें जरा भी दस्तंदाजी होते देख लोग आपे से बाहर हो जाते हैं। इससे स्पष्ट है कि स्वतंत्रता की अपेक्षा लोग सत्ता की कीमत अधिक समझते हैं। उदाहरण के लिए सन्तान की शिक्षा की बात पर विचार कीजिए । क्या यह एक रवयंसिद्ध बात नहीं है कि जितने मनुष्य जन्म लें उनको. एक नियत सीमा तक शिक्षा देने के लिए सव लोगों को बाध्य करना गवर्नमेंट का काम है । परन्तु दया एक भी ऐसा आदमी है जिसे इस सिद्धान्त को कुबूल करने और निडर होकर प्रसिद्धिपूर्वक जाहिर करने में संकोच न होता हो। शायद ही कोई इस बात को न कुबूल करेगा कि किसी प्राणी को पैदा करके उसे संसार में अपने, और दूसरों से सम्बन्ध रखनेवाले, व्यवहारों को अच्छी तरह करने के योग्य बनाने के लिए उचित शिक्षा देना माँ-बाप का (अथवा आज काल की रूदि और कानून के अनुसार बाप का) सब से बड़ा कर्तव्य हैं। इस बात को यद्यपि सब लोग कुबूल करते हैं; यद्यपि वे इस बात को निसन्देह मानते हैं कि इतनी शिक्षा देना वाप का परम कर्तव्य है; तथापि इस देश में ढूंढने से शायद ही कोई आदमी ऐसा मिले जो इस बात को शान्तचित होकर सुन ले कि इस कर्तव्य को पूरा कराने के लिए वाप को साकार करना चाहिए-अर्थात यदि वह खुशी से इसे पूरा न करे तो उस पर- प्रयोग किया जाय । अपनी सन्तति को शिक्षा देने के लिए मेहनत पाने का किसी तरह का नुकसान उठाने की तो बात ही नहीं, उल्ट बिना