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पांचवां अध्याय । २०१

का सम्बन्ध नहीं है उसके विषय में किसी की स्वतंत्रता में दस्तन्दाजी न करने का मुख्य कारण सिर्फ स्वतंत्रता-सम्बन्धी प्रेम है । जब कोई आदमी खुशी से कोई स्थिति विशेष पसन्द कर लेता है तब उससे यह सूचित होता है कि उसे वह स्थिति इष्ट या लाभदायक जरूर मालूम हुई होगी; अथवा, यदि यह, नहीं तो कम से कम वह सह , अर्थात् सहन करने के लायक, तो जरूर ही जान पड़ी होगी। अतएव, सब बातों का विचार करके, उसे उस काम को करने, अथवा उस स्थिति में रहने देने, से ही उसका हित होगा । परन्तु जो आदमी गुलाम बनने के लिए अपने को बेचता है वह उसके साथ ही अपनी स्वतंत्रता को भी बेच देता है। अतएव अपने निज के सब कामों को स्वतंत्रता-पूर्वक करने का उसे जो हक है उससे वह हाथ धो बैठता है । इसलिए जिस उद्देश से उसे अपनी मनमानी व्यवस्था करने देना न्याय्य समझा जाता है वह उद्देश ही उसके इस अकेले. एक काम से निप्फल हो जाता है। उस समय से उनकी स्वतंत्रता जड़ से जाती रहती है, और वह एक ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है कि खुशी से और किसी स्थिति में रहने से जो बातें वह अपने अनुकूल . कर सकता है उस स्थिति में नहीं की जा सकती। स्वतंत्रता का यह उद्देश नहीं है कि उसे पाकर खुद उसे ही कोई खो बैठे। स्वतंत्रता को बेच देना स्वतंत्रता नहीं कहलाती । यह कारण-परम्परा बहुत व्यापक है; ये दलीलें दूर तक काम दे सकती हैं। गुलामी से सम्बन्ध रखनेवाला जो उदाहरण मैंने यहां पर दिया उससे इन दलीलों की गुरुता साफ जाहिर है। परन्तु संसार में रह कर बहुत दफे अपनी स्वतंत्रता को कम कर देने की जरूरत पड़ती है । अर्थात् अकसर ऐसे मौके आते हैं जब आदमी को अपनी स्वाधी- नता का प्रतिबन्ध करना पड़ता है । तथापि स्वतंत्रता को बिलकुल ही बेच देने और उसका प्रतिबन्ध करने में बहुत फरक है। परन्तु जिन बातों से सिर्फ कर्ता का ही सम्बन्ध है उनको स्वतंत्रतापूर्वक अपनी इच्छा के अनुसार उसे करने देना जिस सिद्धान्त का उद्देश है, उसीका यह भी उद्देश है कि जिन बातों का किसी तीसरे ले सम्बन्ध नहीं है उनके विषय में, यदि लोग परस्पर एक दूसरे से किसी तरह का इकरार कर लें तो उस इकरार से छुटने के लिए भी उनको स्वतंत्रता होनी चाहिए। जिस इकरार से रुपये पैसे का सम्बन्ध है उसको छोड़ कर और कोई प्रतिज्ञा एसी नहीं है जिसके विषय में यह कहा जा सके, कि परस्पर एक दूसरे की सम्मति के बिना, दो आदमियों