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पांचवां अध्याय।

पहुंचने में बाधा डालने, के इरादे से यदि दुकानों की संख्या कम कर दी जाय तो जो लोग शराब का दुरुपयोग करते हैं उनके कारण सब लोगों को तकलीफ उठाना पड़े। अर्थात् ऐसा करने से कुछ आदमियों के कारण सब को शराव लेने में असुभीता हो और गेहूं के साथ धुन के भी पिस जाने की ससल पूरी हो जाय । इस तरह का प्रतिबन्ध सिर्फ उस समाज के लिए उपयोगी और उचित हो सकता है जिसमें कामकाजी लोग लड़कों या अलभ्य जंगली आदमियों की तरह अशिक्षित होते हैं; अतएव जिन्हें भवि. प्यत् में स्वाधीनता पाने के योग्य बनाने के लिये, हर बात में, नियमवद्ध करने की जरूरत रहती है। परन्तु किसी भी स्वाधीन देशमें मेहनत मजदूरी करनेवालों के साथ इस नियम के अनुसार खुले तौर पर बर्ताव नहीं किया जाता है और कोई आदमी, जिले स्वाधीनता की सच्ची कीमत मालूम है, उनके साथ इस नियम के अनुसार वर्ताव किये जाने की राय भी न देगा । परन्तु यदि उनको स्वाधीनता की शिक्षा देने, और स्वाधीन आदमियों की तरह उनके साथ बर्ताव करने, के और सब साधनों की योजना निष्फल हुई हो और यह बात निर्विवाद सिद्ध होगई हो कि उनके साथ वही वर्ताव सुनासिब है जो लड़कों के साथ किया जाता है, तो बात ही दूसरी है । इस हालत में पूर्वोक्त नियम के अनुसार वर्ताव किया जा सकता है। जिस वात के विचार की जरूरत है उसके विषय में सिर्फ यह कह देना कि इसमें पूर्वोक्त नियम के अनुसार कार- रवाई होनी चाहिए सर्वया असङ्गत है। क्योंकि कहने मात्र से यह नहीं साबित होता कि और सब साधनों के अनुसार वर्ताव करने की कोशिश निप्पल हुई है। नहीं, उसकी निष्फलता को सप्रमाण सावित करना चाहिए। आदमी अकसर यह कहते हैं कि हम लोगों में यही चाल है, अथवा हम लोगों के यहां ऐसा ही व्यवहार होता आया है। पर यह कहना कोई कहना लिमें कोई अर्थ नहीं। यह प्रलाप मान्न है। इस देशमें जितनी सभायें, संस्थायें या समाज है वे लद नसम्बद्ध वातों का समूह है। अतएव जो बातें प्रतिबन्धहीन और परम्परामाप्त राज्यों में ही देख पड़नी चाहिए वे हम लोगों के आचार और व्यवहार में घुस गई हैं। और मुशकिल यह है कि यहां की सभा सा स्वाधीन हैं। इसलिए प्रतिबन्ध की बातों से नैतिक- तिक्षा-सम्बन्धी लाभ भी, जैसा चाहिए, नहीं होता । क्योंकि काफी तौर पर ऐसी बातों का प्रतिबन्ध ही नहीं किया जा सकता।