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स्वाधीनता।


पर उतारू हो जाते हैं-अर्थात् उन्माद के कारण दूसरों पर अत्याचार करने की स्फूर्ति जिन लोगों में सहसा जागृत हो उठती है-इनका उन्मत्त होना मानो दूसरोंका अपराध करना है। इसी तरह सिर्फ आलसीपन के कारण किसीको सजा देना उस पर जुल्म करना है। यह कोई जुर्म नहीं है जिसके लिए सजा दी जा सके। परन्तु यदि किसी ऐसे आदमी में आलसीपन हो जिसे और लोगों का आश्रय हो, अथवा आलसीपन के कारण जो आदमी किसी इकरार को पूरा न कर सकता हो, तो बात दूसरी है। ऐसी हालत में उसे सजा देना जरूर मुनासिब होगा। यदि कोई आदमी आलसीपन से और किसी कारण से, जो निवारण किया जा सकता हो, आपने बालबच्चों कि परवरिश न कर सके; या और कोई काम, जिसे करना उसका कर्तव्य हो, कर सके; तो, और साधनों के अभाव में, जबरदस्ती मेहनत कराके उसे अपने कर्तव्यों को पूरा कराना अन्याय नहीं। इस तरह की जबरदस्ती व गिनती जुल्म में नहीं हो सकती।

फिर, बहुत से काम ऐसे भी हैं जो सिर्फ करनेवाले ही को प्रत्यक्ष हो पहुँचाते हैं और लोगों को नहीं। इससे ऐसे कामों की रोक कानून से नही की जा सकती। परन्तु बुरे कामों को खुले मैदान करना तहजीब के खिलाफ है―उससे सभ्यता भङ्ग होती है। अतएव ऐसे कामों की गिनती दूसरों से सम्बन्ध रखनेवाले अपराधों में हो जाती है। इस हालत में उनका प्रतिबन्ध न्याय-सङ्गत होता है। लोकलज्जा के विरुद्ध जितने अपराध हैं उनकी गिनती इसी तरह के अपराधों में है। इस तरह के अपराधों के विषय में यहां पर अधिक लिखने की जरूरत नहीं। क्योंकि एक तो प्रस्तुत विषय से उनके सम्बन्ध बहुत दूर का है; फिर लोकलज्जा का दोष और भी एसी बहुत सी बातों पर लग सकता है जो यथार्थ में दूषित नहीं हैं, अथवा जो दूषित मानी ही नहीं गई हैं।

यहां पर मुझे एक और प्रश्न का ऐसा उत्तर देना है जो मेरे प्रतिपादित सिद्धान्तों के अनुकूल हो―अर्थात् जो उन सिद्धान्तों से मेल खाता हो। निज से सम्बन्ध रखनेवाले कुछ काम दूपणीय माने गये हैं। परन्तु हर आदमी को अपने निज के कामकाज अपनी इच्छा के अनुसार करने की स्वतंत्रता है। इसी खयाल से समाज ऐसे कामों का प्रतिबन्ध नहीं करता; वह किसीसे यह नहीं कहता कि तुम ऐसे काम मत करो; और न वह ऐसे