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पांचवां अध्याय

मेरा पहला सिद्धान्त यह है कि आदमी के जिस काम से उसे छोड़ और किसीका सम्बन्ध नहीं है उसके लिये वह समाज के सामने उत्तरदाता नहीं। यदि कोई आदमी ऐसा काम करे जिससे सिर्फ उसी का सम्बन्ध हो, पर जो समाज को पसन्द न हो, तो समाज उसे उपदेश दे सकता है। उसे समझा वुझा सकता है; दिलासा देकर या प्रार्थना करके उसके खयाल बदल सकता है; और यदि अपने हित के लिए उसकी संगति से दूर रहने की जरूरत हो तो वह दूर भी रह सकता है। ऐसे मौके पर समाज यदि कुछ कर सकता है तो इतना ही कर सकता है । इस तरह के किसी काम से घृणा या अप्रीति जाहिर करने के लिए समाज के पास सिर्फ यही साधन है। दूसरा सिद्धान्त यह है कि जिन बातों से दूसरों का सम्बन्ध है उनके लिए हर आदमी समाज के सामने उत्तरदाता है। किसी आदमी को इस तरह की कोई बात यदि समाज को हानिकारक जान पड़े तो उस हानि से बचने के लिए समाज, जरूरत के अनुसार, अपराधी को कानूनी सजा दे सकता है।

पहले इस बात को दिल से दूर कर देना चाहिए कि दूसरे के हित की हानि, या हानि की सम्भावना, होने ही से समाज को किसी आदमी के वर्ताव में दस्तन्दाजी करने का अधिकार मिल जाता है। यह बात नहीं है। हानि या हानि की सम्भावना ही के कारण दूसरे के कामकाज में दस्तंदाजी करना हमेशा उचित नहीं हो सकता। बहुत दफे ऐसा होता है कि किसी उचित अर्थात न्यायसंगत, मतलब की सिद्धि के लिए काम करते समय आदमी को दूसरों की हानि करना, या उन्हें दुःख या प्रतिबन्ध करना, पड़ता है। पर इस तरह की हानि दु:ख या प्रतिवन्ध, वहुत जरूरी अतएव अनि- वार्य, होने के कारण उचित होता है। इस तरह का परस्पर हितविरोध बधा समाज की व्यवस्था ठीक न होने से होता है। जब तक ऐसी व्यवस्था रहती है, अर्थात जब तक समाज की व्यवस्था से उन्नति नहीं होती, तब तक यह हितविरोध होता ही रहता है । कुछ हितविरोध अनिवार्य हैं; वे धन्द ही नहीं हो सकते । समाज की बनावट, अर्थात् व्यवस्था, चाहे जितनी काही हो दे अवश्य ही होते हैं । जिस व्यवसाय को बहुत आदमी करते हैं इसमें कामयादी होने से, चढ़ाऊपरी के इम्तहान पास करने से, और जिस हाज की प्राति के लिए दो आदमी वरावर कोशिश कर रहे हैं उसे उनमें से एक को हिला देने से, जो लाभ होता है वह दूसरों की हानि होने या दूसरों