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नियां, उपन्यास या काव्य आदि पढ़ने लायक पुस्तकों का होना साहित्य नहीं कहलाता और न कूड़े कचरे से भरी हुई पुस्तकों का ही नाम साहित्य है। इस अभाव का कारण हिन्दी पढ़ने लिखने में लोगों की अरुचि है। हमने देखा है कि जो लोग अच्छी अंगरेजी जानते हैं, अच्छी तनख्वाह पाते हैं, और अच्छी जगहों पर काम करते हैं वे हिन्दी के मुख्य मुख्य ग्रन्थों और अखवारों का नाम तक नहीं जानते। आश्चर्य्य यह है कि अपनी इस अनमिज्ञता पर वे लज्जित भी नहीं होते। यदि ऐसे आदमियों में से दस पाँच भी अपने देश के साहित्य की तरफ ध्यान दें और उपयोगी विषयों पर पुस्तकें लिखें तो बहुत जल्द देशोनति का द्वार खुल जाय। क्योंकि शिक्षा के प्रचार के बिना उन्नति नहीं हो सकती। और देश में फीसदी पाँच आदमियों का शिक्षित होना न होने के बराबर है। शिक्षा से यथेष्ट लाभ तभी हो सकता है जब हर गाँव में उसका प्रचार हो। और, यह बात तभी सम्भव है जब अच्छे अच्छे विषयों की पुस्तकें देश-भाषामें प्रकाशित होकर सस्ते दामों पर बिकें। जापान की तरफ देखिए। उसने जो इतना जल्द इतनी आश्चर्यजनक उन्नति की है उसका कारण विशेष करके शिक्षा का प्रचार ही है। हमने एक जगह पढ़ा है कि जिस जापानी ने मिल साहब की स्वाधीनता ( Liberty ) का अनुवाद अपनी भाषा में किया वह सिर्फ इसी एक पुस्तक को लिखकर अमीर हो गया। थोड़े दिनों में उसकी लाखों कापियां बिक गई। जापान के राजेश्वर खुद मिकाडो उसकी कई हजार कापियां अपनी तरफ से मोल लेकर अपनी प्रजा को मुफ्त में बांट दी। परन्तु इस देश की दशा बिलकुल ही उलटी है। यहां मोल लेने व तो नाम ही न लीजिए, यदि इस तरह की पुस्तकें यहां के राजा, महाराज और अमीर आदमियों के पास कोई यों ही भेज दे तो भी शायद वे उन पढ़ने का श्रम न उठावें।

इस दशा में हमारी राय है कि इस समय हिन्दी में जितनी पुस्तक लिखी जायँ खूब सरल भाषा में लिखी जायँ। यथासम्भव उनमें संस्कृत कठिन शब्द न आने पावें। क्योंकि जब लोग सीधी सादी भाषा की पुस्तक ही को नहीं पढ़ते तब वे क्लिष्ट भाषा की पुस्तकों को क्यों छूने लगे। अतए जो शब्द बोल-चाल में आते हैं-फिर चाहे वे फारसी के हों चाहे अरबी। हों, चाहे अंगरेजी के हों-उनका प्रयोग बुरा नहीं कहा जा सकता। पुरतः लिखने का मतलब सिर्फ यह है कि उसमें जो कुछ लिखा गया है उसे लो