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तीसरा अध्याय।


मैं यह कह चुका हूं कि जो बातें प्रचलित अर्थात् रूढ़ नहीं हैं उनका, जहां तक मुमकिन हो, खूब निर्बन्धरहित विवेचन होना चाहिए; अर्थात् उनको खूब उत्तेजित करना चाहिए। क्योंकि ऐसा करने से यथासमय यह बात मालूम हो जायगी कि उनमें से कितनी बातें प्रचलित होने लायक हैं। परन्तु अच्छी अच्छी बातों को प्रचलित करने और उनके प्रचार के लिये अच्छे अच्छे तरीके निकालने ही के इरादे से मनमाना व्यवहार करनेवालों और रूढ़ि के बन्धन से न बंधनेवालों को उत्तेजन न देना चाहिए। और, न इस तरह मनमाना व्यवहार करने का स्वातंत्र्य सिर्फ विलक्षण बुद्धि के प्रतिभाशाली आदमियों ही को मिलना चाहिए। यह कोई नियम नहीं—इसके लिए कोई प्रमाण या आधार नहीं—कि दुनिया में जितने आदमी हैं सब के जीवन का क्रम एक ही नमूनेका हो; या यदि एक से अधिक नमूने का हो तो थोड़े ही का हो, बहुत का न हो। जिसमें मतलब भर के लिये बुद्धि, समझ या तजरुबा है उसे जैसा व्यवहार पसन्द हो वैसा ही करने देनेकी स्वतंत्रता होनी चाहिए। यह इस लिये नहीं कि उसका पसन्द किया हुआ व्यवहार या जीवन-क्रम सब से अच्छा होगा; किन्तु इस लिए कि वह उसीका निश्चय किया हुआ है—उसीने उसे ढूंढ़ निकाला है। यह दूसरा कारण पहले से सबल, सयौक्त्तिक और महत्व का है। आदमी भेड़ नहीं है; और सब भेड़ें भी एक तरह की नहीं होती; उनमें भी फरक होता है। यदि किसी को कोट या बूट की जरूरत होती है, और उसके घर में इन चीजों की कोठी नहीं होती कि उसमें से वह अपनी पसन्द का कोट या बूट चुन ले, तो जब तक उसकी माप के मुताबिक ये चीजें नहीं बनाई जाती तब तक बदन में ठीक होनेवाला कोट और पैर में ठीक आनेवाला बूट नहीं मिलता। तो क्या कोट की अपेक्षा अपनी पसन्द का जीवन-क्रम प्राप्त कर लेना अधिक सहज है? अथवा क्या दुनिया भर के आदमियों के शरीर और मन के स्वरूप उनके पैरों की शकल से भी अधिक समता रखते हैं? जब एक माप के बूट सब लोगों के पैर में नहीं आ सकते तब एक ही प्रकार के आचार, व्यवहार या जीवन-क्रम सब को किस तरह पसन्द आ सकते हैं? सब आदमियों की रूचि एक सी नहीं होती। रूचि की विचित्रता परम्परा से प्रसिद्ध है। यदि यह मान लिया जाय तो इतना ही कारण इस बात के सिद्ध करने को बस है कि सब आदमियों की रूचि एक सांचे में नहीं ढाली जा सकती। हर