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स्वाधीनता।

सत्ता चाहिए; वह सिर्फ इतनी ही सत्ता पाने का हकदार है; इससे अधिक स्वतन्त्रता पाने का वह दावा नहीं कर सकता। जो रास्ता वह बतलावे उस पर चलने के लिये लोगों को लाचार करने का उसे अधिकार न होना चाहिए, क्योंकि यदि उसे ऐसा अधिकार मिलेगा तो दूसरे आदमियों के स्वातन्त्र्य और सुधार में बाधा आवेगी। इतना ही नहीं, किन्तु खुद उस प्रतिभावान् पुरुष की भी हानि होगी। परन्तु एक बात यह जरूर है कि यदि औसत दरजे के आदमियों के समूह के मत खूब प्रबल हो जाय या होने लगें, अर्थात् यदि ऐसे लोगों की सत्ता बेतरह बढ़ जाय, तो उनको ठीक रास्ते पर लाने के लिए समझदार और विशेष बुद्धिमान् आदमियों को अपने अपने मत पहले की अपेक्षा अधिक स्पष्ट और अधिक दृढ़तापूर्वक प्रकट करने चाहिए। इस दशा में, जो विलक्षण बुद्धिमान आदमी अपने मतों को प्रकाशित करने की कोशिश करें उनका प्रतिबन्ध न करके उलटा उन्हें वैसा करने के लिए उत्तेजन देना चाहिए; अर्थात् मामूली आदमियों के बर्ताव से जुदा तरह का बर्ताव करने के लिये उन्हें उलटा उकसाना चाहिए। और, किसी दशा में यदि ऐसे प्रतिभाशाली आदमी इस तरह का बर्ताव करेंगे तो उससे कोई लाभ न होगा। हां, यदि वे किसी तरह की कोई भिन्न रीति निकालें और वह रीति प्रचलित रीति से अच्छी हो तो बात ही दूसरी है। इस समय तो किसी बात का विरोध करके लोगों को विरोध का एक उदाहरण दिखलाना या किसी रूढ़ि के सामने घुटना टेकने से इनकार करना ही संसार की सेवा करना है। आज कल जन-समुदाय का मत इतना प्रबल हो उठा है और उसकी सख्ती इतनी बढ़ गई है कि हर तरह की विलक्षणता को लोग हँसने लगे हैं। अर्थात् लोगों की आंखों में नयापन नहीं खपता; उसे देखते ही वे कुचेष्टायें करने लगते हैं। अतएव इस सख्ती को दूर करने ही के लिए—इस जुल्म से बचने ही के लिए—विलक्षणता की जरूरत है। अर्थात् लोगों को चाहिए कि वे जरूर नई नई और विलक्षण बातें करें। जिस आदमी में स्वभाव की प्रखरता होती है उसमें बुद्धि की विलक्षणता भी जरूर होती है। समाज में भी यही बात पाई जाती है। अर्थात् प्रतिभा, मानसिक शक्ति और नैतिक धीरता समाज में जितनी अधिक होती है, उतनी ही अधिक विलक्षणता भी उसमें बहुत करके होती है। पर आज कल बहुत कम आदमी विलक्षणता दिखलाने का साहस करते हैं। यही बहुत बड़े खटके की बात है। इसी में खतरा है।