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स्वाधीनता।

कालविन * की राय है कि मनुष्य के स्वभाव की ऐसी ही दशा इष्ट है। उसके स्वभाव का नाश होजाना ही―उसकी इच्छाशक्ति का दुर्बल हो जाना ही―मनुष्य के लिए हितकर है। कालविन के मत में स्वेच्छा का होना ही, अर्थात् किसी बात की इच्छा रखना ही, आदमी का सब से बड़ा अपराध है। आदमी यदि अपना कुछ हित कर सकता है तो वह आज्ञा-पालन से ही कर सकता है। अर्थात् जिन आज्ञाओं को मानने के लिए धर्म्म-शास्त्र में वचन हैं उनको मानने से ही उसका भला हो सकता है। आदमी को अपनी इच्छानुसार काम करने का अधिकार नहीं। जिस काम को जिस तरह करने की उसे आज्ञा है उसे उसी तरह करना चाहिए, दूसरी तरह नहीं। जिस काम को करने के लिए आदमी को आज्ञा नहीं, उसे करना ही पाप है। अर्थात् जितना बर्ताव धर्म्मशास्त्र की रूसे कर्तव्यरहित है उतना सब पापमूलक है। आदमी का स्वभाव शुरू से ही सेदोष है; मूल से ही वह पापपूर्ण है। अतएव ऐसे स्वभाव का, भीतर ही भीतर जब तक समूल नाश न हो जायगा तब तक उद्धार की आशा करना व्यर्थ है। जो लोग इस सिद्धान्त को पसन्द करते हैं―जो लोग इसके कायल हैं―उनके मत में मनुष्य की ग्रहण-शक्ति और परिज्ञान-शक्ति आदि मानसिक गुणों का नाश होजाने से कोई हानि नहीं; कोई अनर्थ नहीं; कोई बुराई नहीं। उनके अनुसार आदमी को चाहिए कि वह अपने को ईश्वर की मरजी पर छोड़ दे। उसे और कुछ करने की जरूरत नहीं;। उसे और किसी तरह की योग्यता दरकार नहीं। उसके लिए और किसी इच्छा या वासना का होना इष्ट नहीं। जो बातें ईश्वर की कल्पित मानी गई हैं उनको पूरे तौर पर न करके, और कुछ करने में अपनी शक्तियों को उपयोग में लाने की अपेक्षा उन शक्तियों


  • क्रिश्चियनों के धर्मशास्त्र में लिखा है कि आदमी की सृष्टि एडम और ईव से हुई है। परन्तु ईश्वर की आज्ञा के बिना ज्ञानवृक्ष के फल खाने से एडम और ईव के शरीरका रुधिर दूपित हो गया-उसमें पापात्मक विकार आगया। अतएव उनकी संतति भी पापात्मक पैदा हुई। माता-पिता के विकार सन्तान में आ ही जाते हैं। ऐसी विकृत अर्थात् पापी सन्तति के मन, बुद्धि और शरीर की वृद्धि करना मानो पाप को बढ़ाना है। उनका नाश होने ही में शलता है। कालविन साहब इसी मत के पृष्टपोषक थे।