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स्वाधीनता।


दुनिया या समाज के अपर छोड़ देता है उसके लिये फिर रह क्या जाता है? उसके लिए फिर किसी शक्ति या कर्तव्य की क्या जरूरत? बन्दर की तरह औरों की चेष्टाओं की नकल करने भर की उसे जरूरत रहती है। और किसी चीज की जरूरत नहीं। पर जो आदमी खुद इस बात का निश्चय करता है कि, उसका आचरण कैसा होना चाहिए उसे अपनी सभी मानसिक शक्तियों को काम में लाना पड़ता है। देखने के लिए उसे मनोयोग देना, अर्थात् मन लगाना पड़ता है। आगे का खयाल रखकर उसे तर्कशक्ति और विवेक-बुद्धि से काम लेना पड़ता है, अर्थात् होनहार बातों को ध्यान में रखकर बहुत सोच-विचार के साथ उसे काम करना पड़ता है। निर्णय के लिए जो सामग्री दरकार होती है उसे इकट्ठा करने के लिए उसे चालाक बनना पड़ता है। निश्चय के लिये उसे न्याय-बुद्धि, विवेचना या भले-बुरे की तमीज दरकार होती है। और, अन्त में, निश्चय कर लेने पर उसके अनुसार काम करने के लिए उसे दृढ़ता और आत्मसंयम, अर्थात् अपने को काबू में रखने, की जरूरत पड़ती है। जिस काम को करने या न करने के विषय में आदमी अपनी समझ और अपने मनोविकारों का उपयोग करता है वह काम जितना ही अधिक महत्त्वका होता है उतना ही अधिक उसे इन शक्तियों की जरूरत होती है और उतना ही अधिक उसे इनसे काम भी लेना पड़ता है। स्वभाव ही से प्राप्त हुई इन शक्तियों से जो लोग काम नहीं लेते वे बहुत कम सुमार्गगामी होते हैं और बहुत कम आपदाओं से बचते हैं। परन्तु यदि वे कुमागर्गामी न भी हुए और यदि वे आपदाओं में न भी फंसे तो भी ऐसे आदमियों की कीमत कितनी? जो लोग अपनी मानसिक शक्तियों से काम लेते हैं उनमें और इनमें आकाश-पाताल का अन्तर समझना चाहिए। जिस तरह इस बात का जानना बहुत जरूरी है कि कौन लोग क्या कर रहे हैं―अर्थात् किस तरह के आदमी किस तरह के काम में लगे हैं। जिन बातों को संवारना और पूर्णता को पहुंचाना आदमी का काम है उन बातों में से खुद अपनी उन्नति करके अपनी ही आत्माको परिपूर्ण करना उसका सब से पहला काम है। थोड़ी देर के लिए मान लीजिए कि आदमी के आकार के अनन्त यंत्र किसीने बना डाले। ये मानवी यंत्र आप ही आप घर बनाने लगे, अनाज पैदा करने लगे, लड़ाइयां लड़ने लगे, मुकद्दमों का सुनाने लगे―इतना ही नहीं किन्तु मन्दिर बनाकर उनमें प्रार्थना