कोई प्रचलित रीति या रूढ़ि अच्छी भी है और काम की भी है। पर रूढ़ि समझ कर ही, बिना विचार किये, उसके अनुसार काम करने से, ईश्वर ने मनुष्यता का चिह्न जो बुद्धि या विवेक-शक्ति मनुष्य को दी है उसकी उन्नति न होगी और न उसको, इस तरह के व्यवहार से, कोई शिक्षा ही मिलेगी। भले-बुरे की जांच करने में जब तक कोई प्रवृत्त नहीं होता तब तक निश्चय, विवेक, तारतम्य ज्ञान, नैतिक विचार, बुद्धि की तीक्ष्णता और इन्द्रियों की ग्रहणशीलता आदि शक्तियों की कभी यथेष्ट उन्नति नहीं हो सकती। जो लोग सिर्फ रूढ़ि के दास बन बैठते हैं वे कभी
भले-बुरे की जाँच नहीं करते; वे हमेशा रूढ़ि की पूंछ पकड़ कर ही चलते हैं; और जहां वह लेजाती है वहां चुपचाप चले जाते हैं। न वे यही पहचान सकते हैं कि कौन रीति अच्छी है और न वे उसे प्राप्त करने की इच्छा ही करते हैं। बुद्धि से काम लेने का इन बेचारों को अभ्यास ही नहीं रहता। जिस तरह काम लेने ही से हाथ, पैर आदि अंग सबल और मजबूत होते हैं उसी तरह उपयोग में लाने ही से मानसिक और नैतिक शक्तियों की भी उन्नति होती है। दूसरों को किसी बात पर विश्वास करते या किसीको मानते देख खुद भी उनकी नकल करने में जैसे मन को जरा भी मेहनत नहीं पड़ती वैसे ही दूसरों को किसी रूढ़ि के अनुसार व्यवहार करते देख खुद भी उसीका अनुसरण करने से मनको मेहनत नहीं पड़ती। किसी मत के कारण यदि अपने मत को प्रामाणिक न मालूम हुए, अर्थात् यदि उनको सुन कर मन में यह बात दृढ़ न हुई कि वे सही हैं, तो उस मत को मान लेने ले आदमी की मानसिक शक्ति बढ़ती तो नहीं, पर घट जरूर जाती है। जिन कारणों से आदमी किसी काम में प्रवृत्त होता है वे कारण यदि उसके सन और स्वभावके अनुकूल नहीं हैं तो उस काम को आदमी कभी मन लगाकर उत्साहपूर्वक नहीं कर सकता। इस तरह वेमन काम करने से लाभ तो कुछ होता नहीं पर हानि यह होती है कि बुद्धि शिथिल मन्द और अकर्मण्य जरूर होजाती है। हां, इस तरह का कोई काम, यदि प्रीति-परवश होकर किया जाय, अथवा यदि किसी और को उसे करने का अधिकार ही न हो, तो बात दूसरी है।
हमें किस तरह रहना चाहिए? हमें कैसा बर्ताव करना चाहिए? हमारा आचरण कैसा होना चाहिए? इन बातोंका निश्चय करनेका काम जो आदमी
स्वा०-८