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स्वाधीनता।

बहुत जरूरी है। क्योंकि जिस तरह हर आदमी को अपना अपना मत प्रकाशित करने के लिए स्वतन्त्रता दी जा सकती है उसी तरह जिसका जो मत हो उसके अनुसार काम करने के लिए उसे स्वतन्त्रता नहीं दी जा सकती। यह मैं नहीं कहता कि जो जैसा करना चाहे उसे वैसा ही करने देना चाहिए। उलटा मैं यह कहता हूं कि जिस राय के जाहिर करने से—दूसरे आदमियों को कोई हानिकारक या बुरा काम करने के लिए उत्तेजन या प्रोत्साहन मिलता हो; अर्थात् जिसके कारण कोई नामुनासिब बात करने के लिए औरों के बहक जाने का डर हो; उसे जरूर रोकना चाहिए; उसे हरगिज जाहिर न होने देना चाहिए; उसका अवश्य प्रतिबन्ध करना चाहिए। यदि कोई अखबारों में यह छाप दे कि गल्ले के व्यापारी गरीब आदमियों को भूखों मारे डालते हैं या अमीर आदमियों के पास जो धन-दौलत है वह लूट का माल है, तो कोई हर्ज की बात नहीं। इसलिए उसके प्रतिबन्ध की जरूरत नहीं। परन्तु यदि किसी बनिये की दुकान के सामने इकट्ठे हुए और आवेश में आये हुए गरीब आदमियों के जमाव में घुसकर कोई वही बात कहने लगे, या उसे छपाकर कोई बांटने लगे, तो उसे जरूर सजा मिलनी चाहिए। इस हालत में उसे सजा देना बहुत मुनासिब होगा। यदि किसी काम के किये जाने से बिना किसी वजह के किसीको तकलीफ पहुंचे तो उसे बुरा कहना ही चाहिए; और यदि जरूरत समझी जाय तो उसे तुरन्त रोक भी देना चाहिए। हर आदमी की स्वाधीनता का इतना प्रतिबन्ध जरूर होना चाहिए। आदमी को इस बात का अधिकार नहीं कि अपने बर्ताव से वह दूसरों को तकलीफ पहुंचावे। पर यदि वह दूसरों को किसी तरह की तकलीफ या असुविधा न पहुंचाता हो, अर्थात् उनके कामकाज में वह किसी तरह की बाधा न डालता हो; और जिन बातों से सिर्फ उसीका सम्बन्ध है उन्हींको यदि वह अपनी समझ और इच्छा के अनुसार करता हो तो उसे वैसा करने देना चाहिए। इसके पहले अन्याय में जिन प्रमाणों से यह सिद्ध किया गया है कि हर आदमी को अपना मत प्रकाशित करने के लिए स्वतन्त्रता का दिया जाना बहुत जरूरी है उन्हीं प्रमाणों से उसे अपनी समझ या अपने मत, के अनुसार काम करने के लिए स्वतन्त्रता का दिया जाना भी सिद्ध है। पर अपने काम की जिम्मेदारी उसी पर रहेगी। अर्थात् अपने काम से यदि उसकी कुछ हानि होगी तो उसे ही सहन करनी पड़ेगी।