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दूसरा अध्याय।


वाद-विवाद होता है तब दोनों पक्षों को अपना अपना वकील करने देना चाहिए। ऐसा होना बहुत जरूरी है। क्योंकि एक ही पक्ष के वकील की बहस सुनने से दोनों पक्षों का निष्पक्षपातपूर्वक विचार करने की सद्बुद्धि बिरले ही जज को होती है। इससे जज को उचित है कि वह दोनों पक्षों को अपने अपने वकील सुकर्रर करने दे; उनमें से हर एक को अपने अपने पक्ष को सच साबित करने के लिए यथासाध्य चेष्टा करने दे। यही नहीं, किन्तु जो कुछ वे कहें उसे वह ध्यान से सुने भी। जब तक यह बात न होगी जब तक इस तरह की स्वतंत्रता न दी जायगी तब तक सत्य की जीत न होगी। जितनी अधिक इस तरह की स्वतंत्रता लोगों को मिलेगी उतनी ही अधिक सत्य की जीत होगी; उतनी ही अधिक सत्य की वृद्धि होगी; उतनी ही अधिक सत्य की उन्नति होगी।

संसार में जितने सुख हैं वे सब मनुष्य के मानसिक सुखों पर ही अवलाम्बित हैं। वे उन्हीं पर मुनहासिर हैं। मनोविषयक सुखों की प्राप्ति से ही सब तरह के सुख प्राप्त होते हैं। इसीसे सब को अपनी अपनी राय कायम करने और उसे जाहिर करने की आजादी का मिलना बहुत जरूरी बात हैअपना अपना मत स्थिर करने और उसे प्रकट करने की स्वतन्त्रता का मिलना बहुत आवश्यक है। इस बात का विचार, इस बात का निरूपण, यहां तक चार प्रकार से किया गया। चार बातों, या चार तत्वों, को प्रधान मान कर इस स्वतंत्रता की इस आजादी की-विवेचना हुई। उनको अब मैं संक्षेप से दोहराता हूं।

पहला यदि किसी मत का प्रकाशित किया जाना रोक दिया जाय तो पहुत हानि होने की सम्भावना है। क्योंकि यह कोई नहीं कह सकता कि जिस मत का प्रकाशन रोका गया है वह सच नहीं है। सम्भव है वह सच हो। दृढ़ता के साथ यह कहना कि वह सच नहीं है मानो सर्वज्ञ होने का दावा करना है।

दुसरा-जो बात जाहिर की जाने से रोकी गई है वह यदि भ्रान्तिमूलक भी हो तो भी उसमें थोड़ी बहुत सत्यता का होना सम्भव है। बहुधा उसमें सत्यता का थोड़ा बहुत वंश होता भी है। जितनी प्रचलित बाते हैं, जितने प्रचलित मत हैं, जितने प्रचलित रीति-रवाज हैं, उनमें सत्य का सर्वाश बहुत कम रहता है। अर्थात बहुत कम यह देखा जाता है कि वे