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स्वाधीनता।


हमारी यह इच्छा है कि हमारा जो सत हो वह ठीक हो और वह जानदार बना रहे तो हमको चाहिए कि हम खुद किसी को प्रतिपक्षी बनावें और परिश्रमपूर्वक उससे वाद-विवाद करें। इस दशा में यदि कोई आप ही आप बिना प्रार्थना के विपक्षी बन कर विवाद-द्वारा विवेचना करने के लिए कमर कसे तो हमें उलटा खुश होना चाहिए, नाखुश क्यों?

एक राय न होनेसे बड़े फायदे हैं। मत की विभिन्नता से कभी हानि नहीं होती, लाभ ही होता है। परन्तु जिन प्रमाणों से यह बात सिद्ध होती है उनमें से एक के विपयमें लिखना अभी बाकी है। बुद्धि की पूरी परिपक्वता होने-उसे परिपूर्णता को पहुंचाने में मनुष्यको अनन्त समय लगेगा। जब तक बुद्धि को पूरी परिपक्वता और परिपूर्णता न प्राप्त हो जाय तब तक मतभिन्नता से लाभ होता ही रहेगा। भिन्न मत होने की उपयोगिता तत्र तक कदापि कम न होगी। अभी तक सिर्फ दो बातोंका विचार हुआ है। कोई भी रूढ मत या तो गलत होगा, अतएव उसकी जगह कोई और मत सही होगा; या, यदि वह सही होगा, तो उसके अच्छी तरह समझ में आने और उसकी सत्यताका दिल पर खूब गहरा असर पड़ने के लिए जो भ्रांतिमूलक मत उसके प्रतिकूल होगा, विवेचना के द्वारा, उसके खण्डन की जरूरत होगी। परन्तु, एक बात और भी है। वह इन दोनों बातों से अधिक सामान्य है। वह यह कि कभी कभी दो सिद्धान्तों का मेल नहीं मिलता, अर्थात् न तो दोनों बिलकुल ही भ्रान्तिपूर्ण होते हैं न बिलकुल ही ठीक-कुछ अंश एक का सही होता है, कुछ दूसरे का। इस हालत में रूढ मत में जितना अंश भ्रमपूर्ण होगा उतना अंश विरुद्ध मत से लाकर रूढ़, अर्थात् प्रचलित, मत को पूरा करना होगा। मतलब यह कि रूढ मत की सत्यता की पूर्ति करनी होगी-जितनी बात उसमें झाट होगी उतनी को निकाल डालना पड़ेगा। जो बातें इन्द्रियोंले नहीं जानी जाती, अर्थात् जो इन्द्रियातीत हैं, उनसे सम्बन्ध रखनेवाले रूढ मतों में सत्यता का अंश बहुधा कम ही रहता है। शायद ही कभी उसमें सब अंश सत्य होता हो। बहुधा तो यही देखा गया है कि सर्वांश-सत्यता उनमें कभी नहीं रहती; सत्यता का अंश मात्र रहता है। वह कभी थोड़ा होता है, कभी बहुत। पर वह खूब बढ़ाकर बतलाया जाता है अर्थात् अतिशयोक्ति से थोड़े सत्य को बहुत का रूप दिया जाता है। जिन दूसरे निन्ति सिद्धान्तों के साथ