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दूसरा अध्याय।


को जो उत्तर देता है वह अत्यन्त कमजोर और अत्यन्त सारहीन होता है। नास्ति, अर्थात् उलटा पक्ष लेनेवाले प्रचलित व्यवहार या शास्त्र की भूलें बतलाते हैं। साक्रेटिस को यह नास्तिपक्ष-तर्क करने की यह उलटी पद्धतिबहुत पसन्द थी। परन्तु इस पद्धति की आज कल हँसी होती है। उसे कोई कुछ समझता ही नहीं। यदि इस रीति का प्रधान उद्देश सिर्फ औरों की भूलें दिखलाना ही होता तो इसकी कीमत अवश्य बहुत कम होतीतो यह अवश्य तुच्छ मानी जाती। पर यह बात नहीं है। यदि कोई महत्त्व की बात या कोई महत्त्व का सिद्धान्त इस तरह की तर्कना के द्वारा जानना हो, तो यह अमूल्य है। उस दशा में यह एक बहुत ही बेशकीमती चीज हैं। और, जव तक इस तर्क-पद्धति की उचित शिक्षा लोगों को नियमानुसार न मिलने लगेगी तब तक शायद ही कोई प्रसिद्ध तत्त्ववेत्ता पैदा होंगे। और यदि होंगे भी तो गणितशास्त्र या सृष्टिशास्त्र ही में वे प्रसिद्धि पावेंगे। नास्तिपद्धति के अनुसार विवेचना करना न सीखने से बुद्धि का विशेप विकास कभी न होगा। वह कभी तीव्र न होगी। गणितशास्त्र और सृष्टिशास्त्र में वादविवाद के द्वारा मन के भावों को विशेष उन्नत करने की जरूरत नहीं रहती। पर और शास्त्रों की बात जुदी है। यदि विपक्षी के साथ खूब वाद-विवाद करने से मन के भाव विशेप उन्नत और संस्कृत न हो जायं तो और शास्त्रों के सम्बन्ध में जानी गई बातें ज्ञान में नहीं दाखिल हो सकतीं। उनको ज्ञान-संज्ञा नहीं मिल सकती। हां, यदि ज्ञान में गिनी जानेवाली सभी बातों को कोई आदमी किसी के मन में जबरदस्ती भर दे, या कोई वैसी ही मानसिक उन्नति करले जैसी कि प्रतिपक्षियों के साथ उत्साहपूर्वक सतत वाद-विवाद करने से होती है, तो बात ही दूसरी है परन्तु यह प्रायः असम्भव है। अतएव नास्ति-पक्ष को लेकर शास्त्रार्थ करने की रीति बहुत ही जरूरी है। जहां यह रीति नहीं होती वहां इसका प्रचार बड़ी मुशकिल से होता है। इसके प्रचार में बड़ी बड़ी कठिनाइयां आती हैं। यदि यह पद्धति आप ही आप प्रचार में आने लगे और कोई इसे रोके-इसका प्रचार न होने दे-तो इससे बढ़कर देवकूफी का काम और क्या होगा? दलीलें पेश करते हैं, अथवा कानून या समाज का डर न होने से जो वैसा करते हैं, उनका हमें उलटा अनुगृहीत होना चाहिए। हमको मुनासिब है, कि जो कुछ वे कहें उसे हमें सुने; उस सुनने के लिए हमेशा तैयार रहें। यदि